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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
मनोहरा देव- प्रिया वसन्त जा, बना रही उत्तम पुष्प वाटिका, प्रमोदिनी सुन्दर भद्र-वल्लरी उपाधि पाती सित गन्धराज की। मनोज्ञ - सौंदर्य- -प्रसन्न वर्ण में
प्रसून के प्राण छुपे हुये शुभे !
नसों - नसों में जिनकी नवा-नवा
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स- भेद भाषा मृदु प्रेम की लिखी । '
इसी सर्ग में विविध - पुष्पों की प्रकृतिदत्त शोभा व महत्व के वर्णन के साथ गुलाब के प्रति सम्बोधन, भ्रमर एवं तितली, हंस व कोकिल के प्रति सखियों का सम्बोधन, त्रिशला का प्रकृति सौंदर्य, आश्चर्य - आनंद व मन- -वहेलावादि रम्य भावों का कवि ने मधुर भाषा में निरूपण किया है। नवम् सर्ग में कवि ने ग्रीष्म के तीव्र ताप का वर्णन किया है, जिसके अन्तर्गत ऋजुबालिका नदी के तट पर स्थित उपवन में बाल-साथियों के साथ क्रीड़ा के लिए आये वर्धमान के द्वारा ग्रीष्म के भयंकर निदाध से त्रस्त पशुओं की व प्रकृति की करुण स्थिति का वर्णन है। ग्रीष्म ऋतु ने चारों ओर अपना प्रभाव जमा दिया है। पृथ्वी भी कैसी हो गई थी -
कहीं दुःखी चित्त - प्रतप्त थी धरा, कहीं मही थी खल - वाक्य - दाहिनी, परन्तु धात्री - सह - पाद भूल को, अपांसुला -सी तजती न छांह थी ।
अरण्य गंभीर अशब्द से कहीं, कहीं महाक्रोश - युता वनस्थली कही महा धर्म - प्रतप्त मेदिनी, कही धरा शीतल नीम-छांह में। 2
ऐसे ग्रीष्म के दाहक ताप में कहीं वन में मयूर, कुरंग, हाथी आदि प्राणी रु-छांव में बैठे अलसा रहे हैं, तो कहीं पानी में बैठकर शीतलता प्राप्त करने की कोशिश करते हैं
कहीं घने भू-सह नीम के तले, मयूर बैठे दिन काटते लसे,
अनूप शर्मा - वर्द्धमान, पृ॰ 206-11, 22, 23. अनूप शर्मा - वर्द्धमान, पृ० 257-10, 11.