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________________ आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन जहां मही का दृढ़ मेरुदंड - सा । समुच्च प्रालेय, गिरीन्द्र राजता । महीन्द्र कैलास विशाल मुण्ड- सा । किरीट - सा मेरु विराजता जहां ॥ 153 बाद में क्षत्रिय कुंड की शोभा, महिमा, वहां के राजा सिद्धार्थ की महत्ता, उदारता, वैभव, दानशीलता, विद्वतादि का सुन्दर आलंकारिक वर्णन करते हुए वहां के निवासियों की उदारता एवं महानता का कवि ने अत्यन्त रोचक वर्णन किया है। नख - दूसरे सर्ग में त्रिकालदेव के रूप सौन्दर्य का वर्णन जो प्रथम अध्याय में भी आता है - राजा सिद्धार्थ द्वारा करवाते हैं। प्रथम सर्ग में कवि एक-एक अंग को लेकर नख-शिख वर्णन करते हैं, जबकि दूसरे में राजा सिद्धार्थ रात्रि के समय महल में आगमन में बाद त्रिशला के सौन्दर्य को देख मंत्र-मुग्ध होकर ख-शिख वर्णनकर कामदेव की महत्ता स्वीकारते हैं। यह वर्णन उत्कृष्ट एव रस युक्त भी है, कवि की वाणी एवं भाव खिल उठते हैं, अलंकार भी स्वतः उपस्थित हो जाते हैं इसमें आशंका नहीं, लेकिन दोनों सर्गों के नख - शिख वर्णन में नितान्त समानता रहने से अधिक विस्तार एवं पुनरावृत्ति की नीरसता आ जाती है। इससे भी महत्व की बात इस नख - शिख वर्णन में यह है कि त्रिशला देवी का यह सौन्दर्य वर्णन युक्ति-संगत भी नहीं प्रतीत होता । क्योंकि एक तो वे भावि तीर्थंकर की जननी होने से उनकी भव्य, शान्त, पवित्र, वात्सल्यपूर्ण मातृ - स्वरूप मूर्ति की प्रत्येक जैनी के दिल में प्रतिष्ठा होने से उनके हृदय को थोड़ा चुभता है। दूसरी बात यह है कि त्रिशला दूसरे बच्चे की मां बननेवाली है। इस स्थिति में ऐसे उत्तेजक उन्मुक्त देह - सौन्दर्य का वर्णन कहां तक उचित व प्रासंगिक रहता है वह भी एक सवाल है। बहुत-से विद्वान आलोचकों ने इस श्रृंगार वर्णन का घोर विरोध किया है और उसको अप्रतीतिकर व भद्दा - सा बताकर कवि के शृंगार-रस- वर्णन की भर्त्सना की है। इसके बचाव में यह कहा जा सकता है कि नायिका के अभाव में कवि को रानी त्रिशला के देह सोन्दर्य का प्रेम, दाम्पत्य-जीवन और माधुर्य का वर्णन कर श्रृंगार रस की पूर्ति करने को बाध्य होना पड़ा है और राजा सिद्धार्थ की यौवनसभर रानी के रूप में त्रिशला का वर्णन किया गया है, न कि भगवान महावीर की माता के दृष्टि बिन्दु से। यहां सर्गबद्ध कथा - सार देना प्रासंगिक या महत्वपूर्ण न समझते हुए केवल इतना ही उचित प्रतीत होता है कि 'वर्द्धमान' महाकाव्य में कवि अनूप शर्मा ने भगवान महावीर के ब्रह्मचर्यावस्था में ही दीक्षित होने के पश्चात्
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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