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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : सामान्य परिचय
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परिवार को ऊँचा उठाती है, इसकी प्रमुख कथा है। यद्यपि यह उपन्यास
औपन्यासिक तत्वों की कसौटी पर पूर्णतः खरा नहीं उतरता, लेकिन प्रारंभिक कालीन रचना होने के कारण इसका महत्व स्वीकृत है। "हिन्दी उपन्यासों की गतिविधि को अवगत करने के लिए इसका महत्व 'चन्द्रकान्ता-संतति' से कम नहीं है।' श्री जैनेन्द्र किशोर ने और भी बहुत-से उपन्यास लिखे हैं यथा-कमलिनी, सत्यवती, मनोरमा और शरतकुमार, लेकिन ये सभी अनुपलब्ध हैं। इन उपन्यासों में धर्म और सदाचार की महत्ता वर्णित की गई है। इनके सभी उपन्यास नायिका प्रधान है। रत्नेन्दु :
__ मुनि श्री तिलकविजय जी ने इस उपन्यास की रचना की है। आध्यात्मिक क्षेत्र में मुनि जी का अपूर्व स्थान है। आचार्य होने के कारण आपके हृदय में धर्मानुराग का प्रवाह निरन्तर बहता रहता है और इसी कारण धार्मिक उपदेश को उन्होंने रोचक शैली में उपन्यास रूप में प्रस्तुत किया है। औपन्यासिक तत्वों की प्रचुरता के कारण ही धार्मिक उपदेश का प्रभाव विशेष तीव्रता से निष्पन्न हो सका है। आदर्श की नींव पर यथार्थ का भवन निर्माण करने की प्रेरणा पाठक इस रचना से प्राप्त कर सकता है। रत्नेन्दु के अपार बल, तेज तथा कौशल को लेखक ने पद्मिनी की सुंदरता, शालीनता और एकनिष्ठा के साथ समन्वित कर दोनों के चरित्र-निरूपण में कुशलता का पूर्ण परिचय दिया है। घटनाओं से पूर्ण इस उपन्यास में सभी पात्रों का चरित्र चित्रण अत्यन्त स्पष्ट एवं प्रभावशाली हो गया है। 'रत्नेन्दु' उपन्यास को आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य का सफल व आकर्षक उपन्यास कहा जा सकता है। उपन्यास के प्रारंभ में ही रत्नेन्दु के चरित्र पर प्रकाश डालते हुए उनके मित्रों के संवाद में भाषा की आलंकारिकता
और प्रवाह पाठक का ध्यान आकर्षित कर लेता है। 'रत्नेन्दु' उपन्यास की रचना के उपरान्त ऐसी अन्य कृतियों का मुनि जी ने सृजन किया होता तो जैन धर्म के साथ जैन साहित्य भी लाभान्वित होता। सुशीला :
आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य के इतिहास में युग-प्रवर्तक के रूप में 1. द्रष्टव्य-डा० नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन-पृ. 61. 2. प्रकाशक-दिगम्बर जैन पुस्तकालय-सूरत-'सुशीला' उपन्यास बहुत वर्ष पूर्व
प्रकाशित होने से आज अनुपलब्ध है। केवल इसकी एक प्रति ‘दिगम्बर जैन पुस्तकालय' के स्थापक श्री मूलचन्द किशनदास कापडिया जी से अनुसंधायिका को प्राप्त हुई थी, जिसके लिए वह उनकी आभारी है।