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________________ 98 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य सब कुछ शान्त भाव से सहती है। अन्ततः पवनंजय को अपनी गलती और अभिमान का अहसास होता है और अंजना को स्वीकार करने के लिए उद्यत होता है। अंजना को अनेक शारीरिक व मानसिक कष्ट झेलने पड़े। लेकिन अन्त में परिवार वाले उसे इज्जत व स्नेह से स्वीकार करते हैं। अंजना-पवनंजय की कथा लेकर हिन्दी जैन साहित्य में काफी रचनाएं हुई हैं। लेखक की भाषा-शैली अत्यन्त सरल है। मार्मिक घटनाओं की पहचान कवि को कम रही है, फलतः खण्डकाव्य साधारण कोटि का रह गया है। कवि ने यदि अंजना की सम्पूर्ण जीवनी की अपेक्षा एकाध-दो मार्मिक प्रसंगों को ही काव्यबद्ध किया होता तो भावों की अभिव्यक्ति में विशेष तीव्रता आ गई होती। सत्य-अहिंसा का खून : स्व० भगवत् स्वरूप जैन ने सन् 1940 के आसपास इस छोटे से खण्ड काव्य की रचना की। भगवत् जी की अनेक हिन्दी जैन रचनाएं (कथा, काव्य, नाटकादि) उनके निधन के बाद सन् 1945 में उनके लघु भ्राता वसंतकुमार जैन ने प्रकाशित करवायी थीं। उनकी कुछ रचनाएं तथापि अनुपलब्ध हैं। 'सत्य अहिंसा का खून' सरल शैली के खण्ड काव्य में 'अहिंसा परमोधर्मः' महामंत्र का महत्त्व सिद्ध किया गया है। राजावसु, ब्राह्मणपुत्र नारद तथा गुरु पुत्र पर्वत का इसमें पौराणिक आख्यान का आधार कवि ने लिया है। 'अज' (1-बकरा 2-त्रिवर्षीय शाली जौ) के द्विअर्थ के कारण अर्थ का अनर्थ हो जाने से दो मित्र नारद एवं पर्वत के बीच उग्र विवाद खड़ा होता है, जिसका निपटारा करने के लिए बचपन के सखा लेकिन अब राजा वसु के पास दोनों जाते हैं। पर्वत की माता ने राजा वसु से अमानत वचन की मांग करके अपने पुत्र के पक्ष में न्याय दिलवाया। राजा वसु को सरासर गलत महसूस होने पर भी पूर्व वचन से बद्ध होने के लिए न्याय पर्वत के पक्ष में देने के लिए बाधित होना पड़ा। परिणामतः असत्य के समर्थन से राजा वसु सिंहासनसहित पाताल में चला गया और मूढ मति पर्वत के मस्तिष्क पर कितने युगों तक 'बलि' की परिपाटी-हिंसात्मक विधि-का कलंक रहा। इसकी कथावस्तु अवश्य रोचक है, लेकिन खण्डकाव्योक्ति सुन्दर चरित्र-चित्रण, प्रसंगों की मार्मिकता, वर्णन की विशदता या कलात्मक शैली का प्रायः अभाव है, फिर भी भगवत् जी की यह प्रारंभिक कृति होने पर भी भाव एवं कथा की रोचकता के कारण काव्य ग्राह्य बन गया है। मुक्तक काव्य कृतियां : महाकाव्य तथा खण्ड काव्य के भावविधान व रूपविधान से सर्वथा पृथक् मुक्तक काव्य स्वरूप में भावोर्मि तथा अनुभूति की गहराई रहती है।
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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