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________________ आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : सामान्य परिचय 99 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मुक्तक के अन्तर्गत रस की छींटों को ही महत्त्व दिया है, जिससे पाठक की हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है और रमणीय दृश्य या भाव चित्र की उपस्थिति से पाठक कुछ क्षणों के लिए मंत्र-मुग्ध-सा हो जाता है। भावात्मक मुक्तक के विषय में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए डा० नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं-"नैराश्य, भक्ति, प्रणय और सौन्दर्य की अभिव्यंजना ही जिसका चरम लक्ष्य रहे और जिसकी आरंभिक पंक्ति के श्रवण से ही पाठक के हृदय में सिहरन, प्रकंपन और आलोड़न-विलोड़न होने लगे, वह श्रेष्ठ भावात्मक मुक्तक रचना कही जा सकती है। वैसे मुक्तक के विषय में विभिन्न विद्वानों ने परिभाषाएं प्रस्तुत की हैं, लेकिन यहां हमारा उद्देश्य उन परिभाषाओं को उद्धृत करने का न होकर केवल मुक्तक की आंतर्बाह्य विशेषता को ही संक्षेप में देखने का है। भाव विह्वलता, सांकेतिकता एवं 'विदग्धता का मुक्तक काव्य में रहना आवश्यक-सा हो जाता है। मुक्तक में जीवन की विविध सम्पूर्ण घटनाओं या प्रमुख प्रसंगों को उद्घाटित न कर केवल हृदय की स्वानुभूति का उन्मुक्त अंकन रहता है। एक पल या विचार-बीज मात्र का रहना मुक्तक के लिए अहम् है, जो पाठक के चित्त को झकझोर दे। उसको स्वानुभूति की तीव्रता से प्रभावित कर देने की क्षमता ऐसे काव्यों में आवश्यक रहती है। छन्द के बन्धन, विशद्, वर्णन, विविध पात्र, सम्पूर्ण कथा और भावों की पूर्ण विवृति मुक्तक को स्वीकार्य नहीं है। केवल भाव-जगत में उत्पन्न एक स्पंदन, सिहरन को लयताल में प्रस्तुत कर पाठक को भाव-विभोर बना देने की शक्ति मुक्तक काव्य में अपेक्षित है। __ आधुनिक हिन्दी जैन मुक्तक काव्य जगत में दो प्रकार की प्रवृत्तियां दृष्टिगत होती है। एक तो प्राचीन परिपाटी पर लिखी गई कविताएं; जिनके अन्तर्गत किसी आचार-विचार या सिद्धान्त का प्राचीन ढंग पर वर्णन किया गया हो। भाषा-शैली भी पुराने ढंग की होती है। हृदय की भावना का विश्लेषण तो अवश्य होता है, लेकिन उसके रूप को संवारा नहीं गया होता है। इस प्रकार के कारणों में दार्शनिक पृष्ठभूमि के कारण आधारात्मक नियमों का विधि-निषेधात्मक निरूपण विशेष किया जाता है। अतः स्वाभाविक है कि हृदय की मुक्त भाव-चेतना अपने सहज स्वाभाविक रूप-रंग में निखरी न होने से पाठक की भावना को रस से आप्लावित करने वाली प्रायः नहीं होती है। बल्कि दार्शनिक पृष्ठभूमि के कारण कहीं-कहीं नीरसता या कठिनता की भावना भी पाठक के 1. द्रष्टव्य-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास-पृ. 247. . 2. द्रष्टव्य-डा० नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य-परिशीलन-भाग 2, पृ. 36.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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