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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : पूर्व-पीठिका यत्किचित् परिचय मैंने पृथक् पुस्तिका में दिया है। आदिकाल में अभी भाषा पर प्राकृत एवं अपभ्रंश का प्रभाव विशेष लक्षित होता है तथा चरित्र-ग्रन्थ एवं रासो-ग्रन्थों का प्रणयन भी विशेष हुआ। मुक्तकों की रचना विशेष नहीं हुई। युग-प्रवृत्ति के प्रभाव को ग्रहण का रासो ग्रन्थों में शृंगार व वीर रस को अपनाने की चेष्टा पाई जाती है, फिर भी धार्मिक साहित्य होने से शान्त रस की प्रधानता रही। मध्यकाल में जैन साहित्य की भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव क्रमशः कम होकर देशी भाषा की ओर विशेष झुकी हुई और बाद में तो देशी भाषा में भी खड़ी बोली के शब्दों का कहीं-कहीं अत्यन्त प्रभाव पाया जाता है। प्रबन्ध काव्यों की अपेक्षा मुक्तक स्वरूप का अधिक विस्तार रहा। कवियों पर भक्ति एवं अध्यात्म का प्रभाव विशेष होने से आध्यात्मिक एवं भक्तिपरक पद, विनति की रचनाएं विशेष प्राप्त होती है। गद्य का प्रारंभिक रूप भी इस काल में प्राप्त होता है। बड़े-बड़े भक्त एवं आचार्य इस काल में पाये गये तथा भक्ति रस के उत्कृष्ट संगीतात्मक, हृदयाकर्षक, भावपरक पद इस काल की अमूल्य निधि कहीं जायेगी, जो समस्त जैन भक्ति साहित्य के लिए गौरव की चीज है। संस्कृत-प्राकृत के ग्रन्थों के भावानुवाद की ओर ध्यान देने की अपेक्षा अपनी ही भक्ति भावना एवं मस्ती में डूबकर कवि-भक्तजन रचना करने में प्रवृत्त थे, लेकिन साथ-साथ जन-कल्याण की ओर से इनका चित्त हटा नहीं है। सामान्य जनता विशेषतः जैन समाज को नज़र बिन्दु में रखकर वे प्रायः काव्य रचना करते थे ताकि जनता को आनंद एवं ज्ञान दोनों साथ-साथ प्राप्त हो सके। इस काल में भी शृंगार या अन्य रसों की अपेक्षा शान्त रस को ही महत्व दिया गया। विनति, करुणा के पदों में करुण रस न होकर भक्ति या वैराग्य के भाव अवश्य लक्षित होते हैं। चरित्र-ग्रन्थों की ओर इस काल के कवियों का ध्यान विशेष आकृष्ट नहीं हुआ। हां, यशोविजय जी जैसे प्रसिद्ध आचार्य ने दार्शनिक ग्रन्थों की रचना अवश्य की है। परिवर्तन काल में आते-आते भाषा ने अपना रूप काफी परिवर्तित कर दिया। अब खड़ी बोली का रूप स्पष्ट लक्षित होता है, भाषा में से देशीपन भी गायब होने लगा। विषयों में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। वही धार्मिक कथा ग्रन्थ, व्यसन त्याग, दानशील का और तीर्थंकरों के स्वरूप का वर्णन इन्हीं रचनाओं में प्राप्त होता है। एक बात विशेष रूप से ध्यान खींचती है कि इस काल में जनता की वृत्ति अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होने से दार्शनिक ग्रन्थों की आवश्यकता पूर्ति हेतु संस्कृत व प्राकृत के ग्रन्थों का भावानुवाद विशेष होना था। वे प्रायः पद्य में ही अनुवादित हुए। थोड़े बहुतों की वचनिका या टीका गद्य में अवश्य हुई है। गद्य का विकास इस दृष्टिकोण से इस काल में विशेष हुआ। अतः भाषा के रूप ने और गद्य के विकास ने