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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
आधुनिक युग का द्वार खोल दिया, जिसके साथ राजकीय, धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के परिवर्तन ने सहयोग दिया। इस काल में मुक्तक एवं प्रबंध दोनों रूपों को अपनाया गया। क्योंकि भक्ति का जो गतिशील प्रवाह मध्यकाल में बहता था, वह इस काल में मंद अवश्य हुआ लेकिन पूर्णतः बन्द नहीं होने से भक्ति परक रचनाएं मुक्तक शैली में ही लिखी गई। इस प्रकार प्राचीन काल में भक्तों, कवियों एवं आचार्यों की उत्कृष्ट रचनाओं का त्रिवेणीसंगम हुआ था।
प्राचीन जैन साहित्य पर हम देख सकते हैं कि पूर्व और उत्तर मध्यकाल की धार्मिक व राजकीय परिस्थिति ने अपना प्रभाव काफी डाला है। जैन साहित्यकारों का प्रमुख उद्देश्य या दृष्टिकोण धार्मिक ही था। प्रसिद्ध जैन इतिहासकार डॉ. गुलाबचन्द चौधरी के मतानुसार-'जैन धर्म के आचारों एवं विचारों को रमणीय पद्धति और रोचक शैली में प्रस्तुत कर धार्मिक चेतना और भक्ति भाव को जागृत करना उनका मुख्य उद्देश्य था। जैन कवियों ने जैन काव्यों की रचना एक ओर स्वान्तः सुखाय की है तो दूसरी ओर कोमल मति जनसमूह तक जैन धर्म के उपदेशों को पहुंचाने के लिए की है। इनके लिए उन्होंने धर्मकथानुयोग या प्रथमानुयोग का सहारा लिया है। इस हेतु की पूर्ति के लिए कथाप्रधान और चरित्र प्रधान साहित्य से बढ़कर अन्य कोई प्रभावोत्पादक साधन जनसमूह तक पहुंचने के लिए नहीं है। इसी कारण जैन सहित्य की भाषा अधिक सरल व लोकप्रिय भाषा के निकट की देखी जा सकती है, क्योंकि इनकी रचनाएं प्रायः विद्वत् वर्ग के लिए न होकर सामान्य जनता के हेतु होती थी। इसीलिए धार्मिक भावना का प्रदर्शन जगह-जगह पर इस प्रकार के कथा-साहित्य द्वारा सूचक रूप से होता ही रहता है। इन प्राचीन व मध्यकालीन साहित्यकारों ने धार्मिक भावना को फैलाने के लिए जिस साहित्य की रचना की, इसमें उन्होंने जैन सिद्धान्तों या साधु-मुनियों के नियम-उपनियम या सूक्ष्म तत्वों की चर्चा न करके सामान्य जन-समाज के लिए सरल और मुख्य तत्वों को ही कथा और चरित्रों के द्वारा रोचक शैली में व्यक्त किया है। उन्होंने ज्ञान, दर्शन और चरित्र के सामान्य विवेचन के साथ अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह जैसे सार्वजनिक व्रतों, दान, शील, तप, भाव-पूजा, स्वाध्यायादि आचरणीय धर्मों को ही सरल भाषा में प्रतिपादित किया है। अपने शोध-विषय के साथ भी यही बात देखने की युक्तिसंगत प्रतीत होगी कि आधुनिक हिन्दी साहित्य में गूढ धार्मिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं, परन्तु सार्वजनिक, सरल 1. डा. गुलाबचन्द चौधरी : जैन साहित्य का बृहत इतिहास-छठा भाग, पृ० 15.