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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
उपर्युक्त प्रमुख-प्रमुख कवियों के अतिरिक्त इसी शताब्दी में अनेक छोटे-मोटे कवियों की सूची पं. नाथूराम जी ने अपने इतिहास में दी है तथा उनकी कृतियों के सम्बंध में भी उल्लेख किया है, लेकिन विस्तारभय के कारण हमारे लिए सबका उल्लेख करना संभव नहीं है।
अब इस काल में गद्य की स्थिति के विषय में संक्षेप में देखने की कोशिश करेंगे। गद्य-साहित्य :
इस काल में गद्य-साहित्य का विकास उत्साह वर्द्धक रहा। गद्य की भाषा भी दिन-प्रतिदिन निखरती जा रही थी। काफी मात्रा में गद्य की काव्यपरक वचनिका एवं न्याय, वैद्यक, ज्योतिष के ग्रन्थ गद्य में रचे गये। भाषा अपेक्षा कृत मुहावरेदार एवं परिष्कृत होती दिखाई देती है। मध्यकाल में भी वैसे नमूने देखे जाते हैं लेकिन इस युग जैसा शुद्ध व विकसित स्वरूप नहीं था, जो बहुत स्वाभाविक भी है। क्योंकि गद्य का विकास बहुत मंदगति से हुआ है। आधुनिक काल में आकर ही गद्य ने अपना महत्व सिद्ध किया और उत्कृष्ट रूप धारण किया। इस काल के गद्य के कुछ उदाहरण देखे जायें तो अनुचित नहीं होगा___1. 'सम्यक् दृष्टि कहासो सुनो-संशय विमोह विभ्रम ए तीन भाव जामे ना हो सो सम्यग् दृष्टि। संशय विमोह विभ्रम कहा ताको स्वरूप दृष्टान्त करि दिखायतु है सो सुनो।' कविवर बनारसीदास।
2. 'सूर्य के प्रकाश के बिना अंध पुरुष संकीर्ण मार्ग विर्षे षडे में परे। अरू सूर्य के उदय करि प्रकट भया मार्ग विस्तीर्ण ता विर्षे दिव्य नेत्रानि का धारक काहे को खाडे में परे।'-जगदीश कृत हितोपदेश भाषा वचनिका।
3. परमात्मा राजा कू प्यारी-'सुख देनी परम राणी इन्द्रिय विलासकरणीं। अपनी जानि आप राजा हूं या सो दुरावन करेउ। परमात्मा पुराण-दीपचन्द कृत__उपर्युक्त उद्धरणों से देखा जाता है कि भाषा का प्रवाह खड़ी बोली की और कितना अधिक बहता है तथा गद्य को सुसंस्कृत रूप के ढालने का प्रयत्न भी किया गया है। इस काल में भाषा-वचनिका एवं टीका ग्रन्थों की रचना प्रायः गद्य में होने से गद्य-साहित्य का प्रमाण अच्छा कहा जायेगा। उपसंहार :
इस प्रकार हम देखते हैं कि चालु आधुनिक काल तक पहुंचते-पहुंचते हिन्दी जैन साहित्य को अनेक मोड़ लेने पड़े हैं। इन मोड़ों में आदिकाल, मध्यकाल एवं परिवर्तन काल में प्रमुख कवियों की कृतियों एवं प्रवृत्तियों का