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भारतीय संस्कृति पर बौद्ध एवं जैन परम्परा का प्रभाव न तो नास्तिक हैं और न पूर्णतया किसी नवीन मूलधर्म का प्रतिपादन ही करते हैं।
जैन धर्म भारत की सीमा के पार कभी नहीं गया, वह आज भी धन-सम्पन्न वैश्यों का धर्म है, किन्तु बौद्ध धर्म पन्द्रह सौ वर्षों के देदीप्यमान जीवन के बाद अपने जन्म-स्थान में लुप्तप्राय होने पर भी विश्व की आध्यात्मिक शक्तियों में से आज भी एक विशिष्ट शक्ति है तथा मानव-विश्वास की दृढ़ भित्ति है।
इस देश में जैन तथा बौद्ध धर्म, नामक धार्मिक सम्प्रदायों के आविर्भाव एवं विकास के हेतु धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक आदि परिस्थितियां अधिक अनुकूल रहीं।
__ जैन धर्म कालान्तर में दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में और भी अधिक मतभेद की वृद्धि हुई । इनमें एक ऐसे समुदाय का प्रादुर्भाव हुआ जिसने मूर्ति पूजा का सर्वथा बहिष्कार किया एवं धार्मिक ग्रन्थों का पूजन अपना लक्ष्य बनाया। श्वेताम्बरों में इन्हें तेरापंथी एवं दिगम्बरों में समाई कहते हैं। इस सम्प्रदाय का उदय छठी शताब्दी के पूर्व नहीं हुआ।
जैन धर्म निस्संदेह वैदिक धर्म से नहीं तो बौद्ध धर्म से अधिक प्राचीनतम है। जैन धर्म की रूढ़िवादिता ब्राह्मण धर्म से इसकी सदृशता, धर्म प्रचार की उग्र भावना के अभाव तथा अन्य धर्मों के विरोधाभास के दुर्भाव होने से जैन धर्म देश के विभिन्न भागों में आज भी विद्यमान है।
बौद्धधर्म कालान्तर में हीनयान तथा महायान दोनों यानों में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विचारों में मौलिक मतभेद था।
भारतीय जीवन के विविध अंगों को ढालने में बौद्ध धर्म की प्रगति का बहुत बड़ा हाथ रहा है। सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, भौगोलिक, कला, शिल्प, भाषा लिपि, साहित्य, विज्ञान, पुरातत्व, व्यापार तथा उद्योग आदि सभी अंगों पर बौद्ध धर्म का प्रभाव पड़ा तथा निम्न प्राप्तियाँ
हुयीं
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बौद्ध धर्म ने जटिल तथा दुर्बोध कर्मकाण्ड रहित सरल सुबोध, सीधा-साधा विशुद्ध आचार वादी लोकप्रिय धर्म दिया।