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श्रमण-संस्कृति के लिए। बस इतनी सी बात सुनकर अकबर के मन में तपागच्छादिपति पू० आचार्य श्री के दर्शन की जिज्ञासा उत्पन्न हो उठी।' ___कालान्तर में अकबर ने गुजरात के तत्कालीन सूबेदार मो० एतमाद खां से पूछताछ कर दो मेवडाओं, (यथा - मोदी व कमाल) को सूबेदार मो० साहब खां के पास अहमदाबाद भेजा। इसने अहमदाबाद के प्रसिद्ध जैन अनुयायियों की सभाकर पू० आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी म० सा० के पास अकबर के बुलावा का प्रस्ताव भेजवाया। गुरुदेव ने भी जाने की स्वीकृति प्रदान कर अपने विभिन्न शिष्यों, यथा - पू० मुनिवरश्री सैद्धान्तिक शिरोमणिजी म० सा०, श्री विमलमर्षगणि शतावधानीजी म० सा०, श्री शान्तिचन्द्रगणिजी म० सा०, प० सहजसागरगणिजी म० सा०, पं० सिंहविमलगणिजी म० सा० प० हेमविजयगणिजी म० सा०, व्याकरण चूणामणिजी म० सा०, पं० लाभविजयगणिजी म० सा० आदि तेरह संतों के साथ विहार कर ज्येष्ठ सुदी तेरस संवत 1639 (सन 1585 ई०) को फतेहपुर सीकरी पहुंचे।
तत्पश्चात् सरिजी म. सा० को अकबर ने पूर्व अबुलफजल से आध्यात्मिक विषय पर चर्चा करने हेतु बैठाया गया। कालान्तर में बादशाह ने गुरुदेव श्री को दरबार में सहर्ष आने का आग्रह भेजवाया। सूरिजी का आना देख अकबर ने सिर झुकाकर विनम्रता पूर्वक अभिवादन किया। दरबार में पहुंचने वाले रास्ते में पूर्व से ही कालीन आदि बिछवाया गया था ताकि दूरस्थ क्षेत्रों से पगपग पधारे गुरुदेव के पांव में कोई तकलीफ न हो। किन्तु ऐसे आरामदेय बिछावन पर चलने के लिए आप ने साफ इंकार कर दिया। बादशाह द्वारा कारण पूछने पर पू० सूरिजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जैन साधु भगवन्त कालीन के ऊपर नहीं चलते। सम्भवतः इसके नीचे कोई चींटी आदि सूक्ष्म जीव होगा तो मेरे भार से उसकी मृत्यु हो जायेगी। मनुस्मृति में अहिंसावादियों के लिए वस्त्राच्छादित जगह पर पांव न रखने का वर्णन प्राप्त है।
बादशाह ने सूरिजी की जीवों के प्रति ऐसी दया/करुणा आदि देखकर आश्चर्यचकित रह गया। मन में विचार करते हुए उक्त कालीन को एक साईड से थोड़ा सा ही उठवाया कि अचानक चीटियों का झुण्ड दिखाई दिया। इन्हें देखते ही बादशाह घोर आश्चर्य में पड़ गया। पाश्चातायोंपरान्त पुनः स्वर्णमयी