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उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार
31 उत्तर भारत के काशी एवं बिहार से उद्भूत यह धर्म धीरे- धीरे सम्पूर्ण उत्तर एवं दक्षिण भारत में फैल गया। मौर्यकाल में भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत की ओर श्रमणों के एक वर्ग के प्रस्थान कर जाने के बाद उत्तर भारत में वाराणसी एवं मथुरा से होते हुए राजस्थान एवं तदनन्तर गुजरात आदि प्रदेशों तक के भूभागों में तथा बिहार एवं बंगाल के मध्य से होते हुए उड़ीसा एवंत मिल देशों तक दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार हुआ। उत्तर एवं दक्षिण भारत के प्रसिद्ध नगरों में इस धर्म के प्रचार के लिये राजाओं, महाराजाओं एवं धनिक वर्ग के लोगों ने जैन श्रमणों को अनेक दान दिये, चैत्यों एवं मठों का निर्माण कराया तथा जैन तीर्थंकर की मूर्तियों एवं मंदिर निर्मित कराये।'
अत्यन्त प्राचीन काल से ही हम उड़ीसा को भी जैन धर्म के प्रचार का केन्द्र पाते हैं। संभवतः यह धर्म बिहार एवं बंगाल से होते हुए उड़ीसा में प्रविष्ट हुआ होगा। जैन आगम धर्म कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर ने
जैन धर्म के प्रचार के निमित्त बंगाल के पणिय भूमि में अपना एक वर्ष व्यतीत किया था। आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख मिलता है कि महावीर स्वामी ने तोसलि एवं मौसली नामक स्थानों की यात्रा की थी। तोसलि की पहचान आधुनिक उड़ीसा में कटक के समीप स्थिति भू-भाग से की जाती है। इसका समर्थन आचारांगसूत्र' से होता है जिसके अनुसार भगवान महावीर स्वामी ने पश्चिमी बंगाल एवं दक्षिणी बंगाल वाले भू-भागों तक जाकर अपने धर्म का उपदेश दिया था। इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से उड़ीसा में जैन धर्म का प्रवेश राजा नन्दवर्धन के समय में ही हो गया था। व्यवहार भाष्य से पता चलता है कि उड़ीसा में तोसलिक नरेश ने जिन् मूर्ति सुरक्षित रखी थी। स्पष्टतया उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार कार्य महावीर स्वामी के काल से ही प्रारम्भ हो गया था। डॉ० काशी प्रसाद जायसवाल ने इस सम्बन्ध में कलिंग शासक खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख की 14वीं पंक्ति के आधार पर बताया है कि महावीर स्वामी ने स्वयं कलिंग में कुमारी नामक पहाड़ी पर जैन धर्म का उपदेश दिया था।
ऐतिहासिक दृष्टि से मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद ही कलिंग एक महत्वपूर्ण राजनीतिक इकाई के रूप में उदित हुआ, इसका प्रमाण हाथीगुम्फा