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श्रमण-संस्कृति 'महामंगल सूत्र', 'धनपाल समागम सूत्र,' 'बुद्ध द्वारा आलवक (यक्ष) का दमन', 'डाकू अंगुलिमाल का दमन,"नागराज अजपाल का दमन,"बुद्ध का पारायणक ब्राह्मणों से भेंट', 'आयु संस्कार (जीवन) त्याग का दृश्य,''भगवान् बुद्ध द्वारा शूकरमादव का भोजन करना', 'शृंगिवर्ण युगल का स्वच्छ जलपान' एवं बुद्ध के महापरिनिर्वाण' के दृश्यों का उत्कीर्णन मुख्य रूप से किया गया है। भगवान् बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद दुःखी होने के कारण 'देवताओं
और मनुष्यों का विलाप,' 'स्थविरों द्वारा उनका पादवन्दन,' उनका 'दाहक्रियाकर्म' (अग्नि निर्वाण) तथा तदुत्तरकालिक पूजा, इसके बाद 'द्रोण ब्राह्मण द्वारा अस्थियों की पूजा' इत्यादि भगवान बुद्ध की जीवन-कथाओं तथा जातक कथाओं का उत्कीर्णन बौद्ध कला की अमूल्य निधियां हैं। ये सभी उत्कीर्णन लंकाधिपति दुट्टग्रामणी ने भगवान् बुद्ध की श्रद्धा-भक्ति में करवाया था। उसने वेस्सन्त जातक (538) का अति विस्तारपूर्वक उत्कीर्णन करवाया। इसके साथ-साथ उसने तुषितपुर (देवलोक) से आरम्भकर बोधिमण्ड तक की सभी लीलाओं का विस्तारपूर्वक उत्कीर्णन करवाया था।
श्रीलंका की चित्रकला भी बौद्ध धर्म से प्रभावित थी। चित्रकार अपने चित्रों में मानव-जगत, पशु-जगत और वनस्पति--जगत को समान महत्त्व प्रदान करता था। वह अपने चित्रों को कपड़े, स्तूप, विहार और भवन की भित्तियों पर चित्रित करता था। चित्रकार बुद्ध के अतिरिक्त अन्य देवताओं
और स्त्री-पुरुषों के भी सुन्दर चित्रों को बनाते थे । पशु-जगत के चित्रों में चतुष्पदों यथा सिंह, वृषभ, गज, और अश्व के चित्रों को मणि-मुक्ताओं आदि से बनाया जाता था जिन्हें 'चतुष्पद पंक्ति' की संज्ञा दी जाती है। ये चारों महाआजानेय पशु सारनाथ स्तम्भ के फलक पर भी अंकित हैं जिन्हें बुद्ध के जन्म, कुल, निष्क्रमण और राशि का प्रतीक भी माना जाता है। डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल ने कहा है कि भारतीय संस्कृति में इन चारों पशुओं की मौलिकता की परम्परा एक ओर सिन्धु घाटी तक है और दूसरी ओर 19वीं शती तक देशगत विस्तार में भारत और लंका के साथ-साथ बर्मा, स्याम और तिब्बत तक प्राप्त होता है। बाल्मिकी रामायण में इन्हें जहाँ राम के अभिषेक के लिए मांगलिक द्रव्यों में गिना जाता है वहीं केशवदास (17वीं शती) ने राम के राज प्रासाद के चार द्वारों पर इनका उल्लेख किया है। इन पशुओं के