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श्रीलंका की कला में बौद्ध धर्म का वैश्विक अवदान करवाया था। भिक्षुणियों के लिए जन्ताधार (वाष्प स्नानगृह) के भी निर्माण का उल्लेख प्राप्त होता है।
स्तूपों और विहारों के निर्माण में अलंकरण, उनकी मजबूती और उनकी सुरक्षा का भी ध्यान रखा जाता था। स्तूपों के निर्माण में ईंटों और पाषाणों दोनों का प्रयोग किया जाता था। ईंटों से निर्मित स्तूप पर भी साँची के स्तूप की तरह शिलाकंचुक पहनाने का भी वर्णन है। स्तूप को चाँदी, सुवर्ण और मणि-रत्नों और हीरा से भी अलंकृत किया जाता था। महाबोधि के चारों ओर पाषाण वेदिका तथा तोरण का भी निर्माण किया गया था तथा बोधिवृक्ष के सम्मुख एक दीप स्तम्भ जो वृक्ष के समान ऊँचा था, का निर्माण किया गया था। राजा दुट्टग्रामणी द्वारा भगवान बुद्ध के प्रतिमा के निर्माण का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
वंस साहित्य में अनेक ऐसे स्थापात्यिक रचनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है जो बौद्ध धर्म व संघ के लिए आवश्यक निर्माण थे। भिक्षुओं के धार्मिक कृत्यों के सम्पादन के लिए चार दीवारों से घिरे 'मालक' का भी निर्माण किया जाता था। महावंसा में महामुचुलमालक, प्रश्नाम्रमालक, शिरीषमालक नागमालक, आदि अनेक मालकों का उल्लेख प्राप्त होता है। भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए उपोसथ-गृह (उपोसथगार) का भी निर्माण किया जाता
था।
भगवान् बुद्ध की जीवन-लीला की घटनाओं का भी उत्कीर्णन किया जाता था। इन घटनाओं में ब्रह्मायाचन कथा,"धर्मचक्रप्रवर्तन','यशश्रेष्ठी की प्रव्रज्या', 'भद्रवर्गीय सहायकों की प्रव्रज्या', 'जटिलों कोक सन्मार्ग पर लाने की कथा, 'भगवान् बुद्ध का मगध सम्राट बिम्बिसार से मिलना,' 'उनका राजगृह में प्रवेश', 'वेलुवनाराम का दान ग्रहण', 'उनका अस्सी श्रावकों सहित कपिलवस्तु गमन' तथा वहाँ 'रलचक्रमण प्रातिहार्य प्रदर्शन', 'राहुल एवं आनन्द की प्रव्रज्या का चित्रण,' 'अनाथपिण्डक श्रेष्ठी से जेतवन का ग्रहण', 'आम्रवृक्ष के नीचे प्रातिहार्य प्रदर्शन' उनके द्वारा 'त्रायस्त्रिंश लोक में जाकर किया गया अभिधर्मोपदेश,' 'देवताओं का भगवदर्शनार्थ भूलोक पर आना, 'स्थविरों के प्रश्न' (दी० नि० 20 सू०), 'महासमय सूत्र,' 'राहुलोवाद सूत्र',