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श्रमण-संस्कृति अलग कर दिया जाता था। इन स्नानगृहों में चन्दनिका पाटक (पानी की होज) उदक दोणि (पानी की नादें), उदक कटह (पानी की कड़ाह) की व्यवस्था रहती थी। पानी की निकास हेतु नाली होती थी।
स्वच्छ जल की व्यवस्था विहारों में रहती थी। अधिक दिनों तक पानी मिट्टी के बर्तनों में रखने से दूषित होने लगता था तथा उसे दुर्गन्ध (दुग्गध) आने लगती थी इसलिए मृतिका पात्रों को अच्छी प्रकार से समय-समय पर सुखाया जाता था। जल की शुद्धता और स्वच्छता पर बुद्ध ने बहुत बल दिया था। हाथ-पाँव के प्रक्षालन हेतु 'परिभोजनीय' सदृश अलग जल की व्यवस्था होती थी। जबकि पाने वाले स्वच्छ और शुद्ध जल को 'पानी' कहा जाता था। पृथक्-पृथक् दोनों की व्यवस्था से स्पष्ट है कि पेय-जल का विशेष ध्यान रखा जाता था। शायद पेय जल आसानी से सुलभ नहीं था। आज के समाज में जहाँ स्वच्छ जल की अनुपलब्धता दृष्टिगत है, वहाँ इस प्रकार का वर्गीकरण विचारणीय है। द्रष्टव्य है कि सहस्रों वर्ष पूर्व जल की शुद्धता को ध्यान में रखते हुए उसका वैज्ञानिक वर्गीकरण बुद्ध द्वारा किया गया था।
जल प्रबन्धन का एक बड़ा ही रोचक उदाहरण नाशिक के पास उन पर्वताश्रयी गुफाओं में देखा जा सकता है जहाँ पर्वत-खण्ड को काटकर एक कूपाकार गुफा बनायी गयी है जिसमें वर्षा ऋतु में जल एकत्र होता था। इस जल को उपयोग वहाँ ऊँचाई पर निवास करने वाले भिक्षु पूरे वर्ष पेय, प्रक्षालन आदि के लिए करते थे। यह जल व्यवस्था तो शैलकृत गुफा-वास्तु का एक अंग था, जो कक्ष निर्माण के ही साथ बनता था।
सन्दर्भ 1. छान्दोग्य उपनिषद 6/711 2. अथर्ववेद 6/13/1391 3. छान्दोग्य उपनिषद 6/73; षोडशकलः सोम्य पुरुषः पंचदशाहानि माशीः काममपः।
पिवोयोमयः प्राणो न पिवतो विच्छेत्स्यत इति। 4. ऋग्वेद 10/2/171 5. डॉ. भरत सिंह उपाध्या, बुद्ध कालीन भारतीय भूगोल, पृ० 102 । 6. वही। 7. रामायण, 2/64/3-14।