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बौद्ध परम्परा में पेय-जल
___ बौद्ध काल में पेय-जल हेतु पुष्करिणी का अपना विशेष महत्त्व देखने को मिलता है। महावग्ग से ज्ञात होता है कि वैशाली नगर में जहाँ 7707 प्रसाद थे वहीं पुष्करिणीयों की संख्या भी कुछ इसी प्रकार की थी। इससे प्रतीत होता है कि इस नगर के प्रत्येक गृह में पुष्करिणी की व्यवस्था थी। इतना ही नहीं संघारामों के वास्तु-विन्यास में भी पुष्करिणी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था। तत्कालीन समय के जिन बौद्ध केन्द्रों यथा- श्रावस्ती, सारनाथ, बोधगया आदि के उत्खनन हुए हैं वहाँ से पुष्करिणी की संरचनाएँ प्राप्त हुई हैं। ___ चुल्लवग्ग में गृह के जल-व्यवस्था हेतु अलग कक्ष अर्थात् जलशाला का उल्लेख है जिसका निर्माण ऊँची चौकी पर किया जाता था। पानी की स्वच्छता को दृष्टिगत रखते हुए उसे खर-पतवारों (तिपण-चुण्ण) से वंचित रखने के लिए जलशाला को अच्छादित करने का निर्देश है।" इस कक्ष में 'पानीयभाजन' अर्थात् जल-पात्रों की व्यवस्था जल रखने हेतु की जाती थी।12 पानी के उपयोग हेतु गिलास (पानीसंख), कुलहण (सरावक) की व्यवस्था होती थी जिससे की पानी की अपव्ययता रोकी जा सके एवं जल-प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सके।
जल प्राप्ति हेतु कूप निर्माण का भी प्रसंग देखने को मिलता है। कुएँ की मुडेंर (उदपानस्यकल) ईटों, प्रस्तर द्वारा निचाई करके पक्की बनाई जाती थी। पानी भरने के लिए रस्सी (उदक वाहन रज्जु) की व्यवस्था होती थी। हाथ के अतिरिक्त ढेकली (तुल), पुर (करकटंक) तथा रहट (चक्कवट्टक) का प्रयोग होता था, क्योंकि शतं या सहसभिक्षुओं के लिए जल की आवश्यकता होती थी। कुओं पर मटके (लोहवारक), लकड़ी के बर्तन (दारूवारक) चमड़े के मशक (चक्मक्खण्ड) सदृश बर्तन पानी रखने के लिए प्रयुक्त होते थे।"
परवर्ती युग में घट को खर-पतवार से सुरक्षित रखने के लिए उस पर ढक्कन (अपिधान) लगाने की व्यवस्था थी। यही नहीं कूप के ऊपर संरचनाएँ की जाने लगी थी, उसे 'उदपानशाला' कहते हैं। इन्हें सफेद, काले और गेरूवे रंग से रंगा जाता था। इन 'उदयानशालाओं' में लोगों के प्रक्षालनार्थ भी जल का प्रबन्ध था। उसे एक प्रकार के माध्यम से आधुनिक प्रसाधन सदृश