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श्रमण-संस्कृति उठाने जाने या यहाँ तक कि अकेले होने के कारण यौन-प्रताड़ना की भारी संभावना रहती थी।
बुद्ध महिलाओं के साथ उनके व्यक्तित्व के आधार पर व्यवहार करते थे। सैद्धान्तिक रूप से वह उन्हें पुरुषों के समान ही समझते थे, हालांकि इस प्रकार की स्थिति महिलाओं की निर्वाण प्राप्त करने की योग्यता तक ही सीमित रही दिखाई पड़ती है। समाज के अन्दर महिलाओं के अधिकारों की ओर बुद्ध का ध्यान इतना नहीं गया होगा, जितना ध्यान उन्हें मिलना चाहिये था। तथापि जब भी मौके मिले, बुद्ध ने अपने मन की ही बात की। उनके द्वारा पसेनदि को कहे गये शब्दों से यह बात सिद्ध होती है, जो यह समाचार सुनकर दुःखी हुआ कि उसकी पत्नी ने पुत्र की जगह पुत्री को जन्म दिया था। बुद्ध ने उससे कहा कि पुत्री वास्तव में, ज्ञानी व गुणी बनकर पुत्र से भी अधिक अच्छी सन्तान सिद्ध हो सकती है। महात्मा बुद्ध ने धार्मिक एवं सामाजिक सुधार करके समाज को अभिनव आयाम दिये। पुत्री एवं पुत्र के जन्म में उन्होंने कोई अन्तर नहीं माना। बौद्ध विचारधारा के अनुसार अपुत्रक द्वारा पुत्र को गोद लेना उतना कानून सम्मत नहीं था, जितना कन्या को दत्तक बनाना। सोमवती एवं थाणा को गोद लिये जाने के उदाहरण हैं। कन्या जन्म पर भी पुत्र जन्म की भांति सभा आनुष्ठानिक कृत्य सोल्लास सम्पन्न किये जाते थे। एक बार यह जान लेने बाद कि महिलाएं धार्मिक जीवन अपनाने की पूरी क्षमता रखती हैं, आरम्भिक बौद्ध संघ को यह निर्णय करना था कि इस तरह के विचार से उत्पन्न रुचि के सम्बन्ध में क्या किया जाना चाहिये। आरम्भ में, कोई खास समस्या पैदा होती नजर नहीं आती क्योंकि आन्तरिक मामलों पर प्रभुत्व व बाह्य मामलों में स्वीकार्यता के सम्बन्ध में जैसे-जैसे ही संघ विकसित हुआ, उसने अपने चरित्र को बाहरी समाज के अनुसार ढालना शुरू कर दिया। इस तरह के परिवर्तन के फलस्वरूप, ऐसे बढ़ते हुए रुख का प्रमाण मिलता है, जिसका अर्थ था कि महिलाएं धर्म परायणता को पूर्णकालिक पेशा तो बना सकती हैं लेकिन एक ऐसे सावधानीपूर्वक नियंत्रित संस्थागत ढांचे के भीतर रहकर, जो पुरुष प्रधानता व महिला-अधीनीकरण को पारम्परिक रूप में स्वीकृत सामाजिक मानकों के द्वारा सुरक्षित व सशक्त बनाता हो।