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श्रमण-संस्कृति लेकिन उनकी अक्षमताएं उनके पिछले जन्म में किये गये कर्म के परिणाम के रूप में देखी गई। लेकिन, महिला के रूप में पुनर्जन्म लेकर भविष्य में अपने दुःखों से छुटकारा पा सकी। नारोवादी मूल्यों के हिसाब से यह समाधान चाहे जितना भी असन्तोषजनगम-से-कम यह विचार स्वीकार करके कि पुरुष-प्रधानता महिलाओं के लिए कठिन व दुःखदायी होती है, भविष्य में आशा की किरण दिखाने का प्रयास करता है। एक नारीवादी मत रखने वाला यह जरूर सुझाएगा कि जिस चीज से छुटकारा पाने की आवश्यकता है, वह भविष्य में महिलाओं के रूप में पुनर्जन्म नहीं, बल्कि वे वर्तमान परिस्थितियां हैं, जिन्होंने महिला-जीवन को कठिन व असहनीय बना दिया है।
यदि पारिवारिक जीवन दमनात्मक था तो जहाँ तक बौद्ध धर्म का प्रश्न है, बिहार-व्यवस्था महिलाओं के लिए आमतौर पर परिमोचक था। पहली बौद्ध संगीति के दौरान आनन्द पर दोषारोपण भी वह सिद्ध करता है कि जब बुद्ध अपने शिष्यों को निर्देश देने या नियंत्रित करने के लिए जीवित नहीं रहे तो उनके शिष्यों का दृष्टिकोण काफी कठोर हो गया था। फिर भी बौद्ध समुदाय में महिलाओं का दमन सार्वभौम नहीं रहा होगा। जबकि महिलाओं को सचमुच में नियम व व्यवहार के द्वारा निम्नतर स्तर पर सीमित कर दिया गया था, इतिहास इसके प्रतिकूल उदाहरणों को भी प्रस्तुत करता है। टैस्सा बार्थोलोम्युज ने दिखाया है कि कैसे संघमित्रा का मामला इस विचार को पुष्ट करता है। वह शक्तिशाली राजा अशोक की बेटी थी, जिसने उसे भिक्षुणी - संघ स्थापित करने के लिए श्रीलंका भेजा था। यह उस उच्च स्थान का संकेत है जो एक महिला बौद्ध पदानुक्रम में बना सकती थी और इससे यह भी आभास मिलता है कि कम-से-कम अशोक के समय में बौद्ध सिद्धान्त में ऐसा कुछ भी नहीं था, जो महिलाओं को पुरुष के बराबर माने जाने पर प्रतिबन्ध लगा पाता।" पालि त्रिपिटक में कुछ संदर्भ मिलते हैं, जिनमें महिलाओं की उपस्थिति को स्वीकार ही नहीं किया गया, बल्कि उनकी प्रशंसा भी की गयी है। उदाहरण के लिए, खेमा को बुद्ध ने स्वयं अनुदेशित किया था। किंवदंती के अनुसार जब उसकी शिक्षा पूरी हुई तब वह धर्म व इसके अर्थ पर पूर्ण पकड़ के साथ