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जैन धर्म में सामाजिक चिन्तन
408 अवहेलना प्रदर्शित की गयी है।" जैन पुराणों के अनुसार विनाश (क्षत्) से रक्षा (त्राण) करने से क्षत्रिय संज्ञा प्राप्त होती है।12 इन पुराणों में क्षत्रिय की आजीविका शस्त्र धारण करना वर्णित है। जैन पुराणों में वैश्य, सेठ, वणिक्, श्रेष्ठी एवं सार्थवाह शब्द प्रयुक्त हुए हैं। श्रेष्ठि पद परिवार के सबसे वरिष्ठ व्यक्ति को दिया जाता है। जैन पुराणों के अनुसार जो नीचकर्म करते थे तथा शास्त्रों से दूर भागते थे उन्हें 'शूद्र' कहा गया है।
प्राचीन जैनसाधु ब्राह्मणों के विपरीत निम्नवर्ग के परिवारों जिनमें बुनकर भी सम्मिलित थे, उनका अन्न ग्रहण करते थे। उत्तराध्ययन सूत्र में एक श्वपाक चाण्डाल हरिकेशवल का उल्लेख है जिसने एक ब्राह्मण को नैतिक आचरण की शिक्षा दी थी। अतः सामाजिक समरसता के चलते इस समय शुद्ध एवं अन्य निम्न जातियों की स्थिति में परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होता है। उल्लेखनीय है कि इसी समय शूद्र राजा नन्दवंश के रूप में हुआ।
आश्रम व्यवस्था युक्ति के जीवन के विभिन्न स्तरों का प्रशिक्षण स्थल है तथा इसके अनुशासन की आधारशिला है।" आश्रम व्यवस्था इन चारों अव्यवस्थाओं के माध्यम से मनुष्य अपना गन्तव्य निश्चित करता है और ये चारों अवस्थायें प्रशिक्षण की श्रेणियों के रूप में स्वीकार की जा सकती हैं। आश्रम व्यवस्था को जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष के लिए मनुष्य द्वारा की जाने वाली जीवन यात्रा के मध्य का विश्राम स्थल मानना चाहिए। जैन परम्परा में आयु के आधार पर आश्रमों के विभाजन का सिद्धान्त नहीं प्राप्त होता, जबकि ब्राह्मण विचारधारा जीवन के सर्वांगीण उत्कर्ष के निमित्त व्यक्ति को चारों आश्रमों का पालन करने का विचार प्रस्तुत करती है। जिस प्रकार प्राणवायु का आश्रय प्राप्त कर सभी जीव जाते हैं उसी प्रकार गृहस्थ का आश्रम प्राप्त कर सभी आश्रम (ब्राह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास) चलते हैं। जैन साहित्य में गृहस्थाश्रम छोड़कर सीधे सन्यास लेने का समर्थन किया है। सन्यास को उचित बताते हुए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि जिसके पास अपना कुछ नहीं है वही सुख से रहता है। जबकि पारस्परिक विष्णु ब्राह्माण्ड एवं मत्स्य पुराणों में समलीक गृहस्थ को ही महान फल, दान तथा अभिषेक का अधिकारी वर्णित किया है। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि "जो गृहस्थाश्रम के पीछे नहीं पड़ते हैं वे निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं।"