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श्रमण-संस्कृति भी दुःख है, अप्रिय मिलन एवं प्रिय वियोग भी दुःख है, इच्छित वस्तु की अप्राप्ति और अनिच्छित वस्तु की प्राप्ति भी दुःख है। डॉ० गोविन्द चन्द्र पाण्डेय ने इस प्रथम आर्य सत्य दुःख का बुद्ध के उपदेशों में महत्वपूर्ण स्थान बताया है।
(2) दुःखसमुदाय - द्वितीय आर्य सत्य को चिकित्सा विज्ञान में निदान से सम्बन्धित किया गया है। इसमें बुद्ध ने दुःख के मूल कारणों का उपदेश दिया है। इसमें बुद्ध ने स्पष्ट किया है कि दुःख का उदय कैसे होता है तथा सारा संसार दुःख से किस प्रकार पीड़ित है प्राचीन पालि ग्रन्थों में दुःख के समुदाय की विविध छोटी-बड़ी सूचियां दी गयी हैं, जिनमें दुःख के कारणों का निर्देश है।
डॉ० पाण्डेय के अनुसार प्राचीनतम् निर्देश अल्पाकार है और उनमें तृष्णा, कर्म, अहंकारदृष्टि अथवा उपादान को दुःख का कारण बताया गया है। तृष्णा और इच्छा दोनों साथ - साथ रहते हैं। तृष्णा पुर्नभव को करने वाली, आसक्ति और राग के साथ चलने वाली और यत्र-तत्र रमण करने वाली है, जैसे कि काम-तृष्णा, भव-तृष्णा और विभव-तृष्णा। तृष्णा के साथ अविद्या की स्थिति में मानव चेतन युक्त होते हुए विवेक शून्यता की स्थिति में संचरण करता है।
। (3) दुःख निरोध - तृतीय आर्य सत्य दुःख निरोध है जिसका सम्बन्ध चिकित्सा विज्ञान में स्वस्थता से किया गया है। दु:ख के मूल कारण तृष्णा और अविद्या का निर्मूलन ही दुःख निरोध है।
बुद्ध का स्वयं का कथन है - 'हे भिक्षुओं। दुःख निरोध आर्य सत्य जो इस तृष्णा ही अविशेष विराम, निरोध, त्याग, प्रतिनिस्सर्ग और छोड़ना है।' इस प्रकार रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, और विज्ञानादि का निरोध ही दुःख निरोध है।
(4) दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा - दुःख निरोध किस मार्ग के अनुसरण से किया जाए इसे बुद्ध ने चतुर्थ आर्य-सत्य, दुःख - निरोध गामिनी प्रतिपदा के अन्तर्गत बताया गया है। इसका सम्बद्ध चिकित्सा विज्ञान में उपचार से किया गया है। इसमें दुःखनिरोध का मार्ग बताया था। दुःख के मूल