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बौद्ध धर्म में चार आर्य सत्यों का चिकित्सा विज्ञान से सम्बन्ध
माधवेन्द्र तिवारी
ज्ञान - प्राप्ति के पश्चात् गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश ऋषिपत्तन (सारनाथ) में दिया। इस प्रथम उपदेश को 'धर्मचक्रप्रवर्त्तन' (धम्मचक्कापवत्तन) की संज्ञा दी जाती है। यह प्रथम उपदेश दुःख, दुःख के कारणों तथा उनके समाधान से सम्बन्धित था। इसे 'चार आर्य सत्य' (चतारि आरिय सच्चानि) कहा जाता है। जिसके सम्बन्ध में कर्न महोदय ने यह सुझाव प्रस्तुत किया है कि चार आर्य सत्यों का सिद्धान्त बौद्ध धर्म के अन्तर्गत चिकित्सा विज्ञान से ग्रहण किया गया है। अभिधम्म कोष व्याख्या के व्याधि सूत्र में तथागत की तुलना भिषक से की गयी है और आर्य सत्यों को वैद्यक के चार अंगों से ये चार अंगों से ये चार आर्य सत्य चिकित्सा के इन चार अवस्थाओं के समतुल्य कहा गया है।
1. रोग, 2. निदान, 3. स्वस्थता, 4. उपचार
डॉ० आनन्द कुमार स्वामी ने भी इस आशय का विचार व्यक्त किया है।' स्पष्ट है कि बुद्ध ने जिन्हें कहीं-कहीं महावैद्य कहा गया है, दुःखमय जीवन को एक व्याधि के रूप देखा और उनकी प्रणाली स्वभावतः इस व्याधि का उपचार करने वाले वैद्य की हो गई -
(1) दुःख - प्रथम आर्य सत्य दुःख का सम्बन्ध चिकित्सा विज्ञान में रोग से किया गया है। इस प्रकार बुद्ध ने सर्वं दुःखं, दुःखं के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, व्याधि भी दुःख है, मृत्यु