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शुंग - सातवाहन काल में श्रमण परम्परा का सातत्य
करने का यह प्रथम साक्ष्य है, जो तत्कालीन समाज में कृषि की प्रधानता द्योतित करता है) वहीं दूसरी ओर वीर पुरूष दत्त की भार्या वघी श्री (जो उसकी सगी फुफेरी बहन थी) ने नागार्जुनीकोण्ड स्थित स्तूप की मरम्मत करवायी और शैल स्तम्भ स्थापित करवाया ।"
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इससे ज्ञात होता है कि वहाँ अपर महावन शैल नामक कोई बौद्ध सम्प्रदाय था; उसके आचार्य वहाँ पंचमात्रकों अर्थात् बौद्ध-निकायों को पढ़ते-पढ़ाते थे ।
इन अभिलेखिक साक्ष्यों से स्पष्ट है कि ब्राह्मण धर्म के उत्थान के साथ श्रमण धर्म को नकार पाना राजाओं के लिए सम्भव न था, क्योंकि बौद्ध एवं जैन धर्म की जड़ें इतनी गहरी थीं कि प्रत्यक्ष रूप से ब्राह्मण परम्परा का सम्वाहक होने का दावा करने वाले सातवाहन भी श्रमण धर्म के भी उन्नायक दिखाई देते हैं। गौतमी पुत्र शतकर्णी तथा वाशिष्ठी पुत्र पुलुमावी के अभिलेख भी राजमाता गौतमी बल श्री द्वारा बौद्ध भिक्षुओं के निमित्त भूमिदान एवं गुहादान का उल्लेख करते हैं।” सातवाहनों का बौद्धों के प्रति सम्मान एवं अनुग्रह का भाव अनुवर्ती अभिलेखों से भी प्रमाणित है । 18
वस्तुतः धर्म के क्षेत्र में व्याप्त सैद्धान्तिक मतभेद तथा तज्जनित साम्प्रदायिक विरोध के होते हुए भी प्राचीन भारतीय संस्कृति अधिकांशतः धर्म-सहिष्णु और सर्व-धर्म-सम्वर्धक ही रही है
सन्दर्भ
1. त्रिपाठी सच्चिदानंद, शुंगकालीन भारत, पृ० 126.
2. हुल्प्ज, भरहुत इंस्क्रिप्शंस, इण्डियन एण्टिक्वेरी 21, पृ० 27.
3. कनिंघम, स्तूप ऑफ भरहुत, पृ० 13, चित्र 1-4.
4. फर्गुसन, ट्री एण्ड सरपेट वर्शिप, फलक, 25-26, 27-28.
5. वही, फलक 98.
6. कनिघंम, स्तूप ऑफ भरहुत, फलक 16.
7. वही पृ० 4, फलक 31-35.
8. विद्यालंकार, भारतीय इतिहास की रूपरेखा, भाग-1, पृ० 382-83.
9. शास्त्री अजय मित्र, बुद्धिस्ट स्कूल ऐज नोन फ्रामअर्ली इण्डियन इंस्क्रिप्शन, भारती, अंक-2, पृ० 27.