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62 पालि निकायों में व्यापार
संचालन एवं संगठन
प्रीति तिवारी
पालि निकायों में व्यापार को जीविका के सभी साधनों से श्रेष्ठ माना गया है। इसमें बहुत कम काम करने और अनुशासन की विकट समस्याओं से प्रायः मुक्त होने से प्रचुर लाभ होता था। स्वाभाविक है, इस ओर समाज के बहुसंख्यक प्राणी आकृष्ट हों, पर जैसा कि कई संदर्भो से स्पष्ट है, व्यापार उन लोगों के लिए लाभप्रद था जिनमें इसके अनुकूल आचरण करने और सूझबूझ की अपार क्षमता होती थी। साथ ही, व्यापार में पूँजी निवेश की क्षमता तथा महाजनों के बीच साख ऐसी होनी चाहिए कि व्यापार के लिए माल समय पर मिलने में कोई कठिनाई ना हो। व्यापार की सफलता के ये ही मूलमंत्र हैं जिनकी मीमांसा पालि निकायों के अनेक संदर्भो में की गई है। खरीद-बिक्री व्यापार के आधारभूत तत्त्वों में एक था और इसमें लगे लोग लाभ की कामना करते थे। दूसरी ओर, यह व्यापार सभी के लिए वरदान बन कर नहीं आता। यह व्यापार किसी के लिए अधिक लाभप्रद, किसी के लिए संतुलित तथा किसी के लिए घाटे का सौदा होता है। फिर भी, शीघ्र समृद्ध होने की चाह सभी के मन में बनी रहती है और यही मनोदशा बुद्धकालीन उन व्यापारियों की है जो देश-देशान्तर में जाकर विभिन्न वस्तुओं का व्यापार करते थे।
पूंजी निवेश की क्षमता तथा व्यापारिक रूझान के कारण वैविध्यपूर्ण व्यापार प्रचलित था। कोई हथियार का व्यापार तो कोई सुंगधित द्रव, मांस, मदिरा और तरह के व्यापार समाज विरोधी मनोवृत्ति वाले हैं, अतः इन्हें त्याज्य