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भारतीय संस्कृति एवं जैन धर्म
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स्नान न करने से मलिन शरीर व मौन इन मुनियों में केशी प्रधान थे । एक अन्य स्थान केशी और वृषभ विशेषण- विशेष्य रूप में प्रयुक्त हुए हैं जिससे संदेह नहीं रहता कि वातरशना ऋषियों के नायक केशी वृषभ थे। यदि इस बात में कुछ संदेह रहता है तो उसका परिहार भागवत पुराण से हो जाता है जहाँ नाभि एवं मरुदेवी के पुत्र ऋषभ के चरित्र व तप का विस्तार से वर्णन किया गया है और यह भी कह दिया गया है कि ये विष्णु के भक्त थे तथा वातरशना ऋषियों की परम्परा में उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार वैदिक परम्परानुसार यह सिद्ध जाता है कि श्रमण मुनि उस समय भी विद्यमान थे जब वेदों की रचना हुई
थी ।
परम्परा के अनुसार एक पवित्र मौखिक साहित्य महावीर के समय से चला आ रहा है जो लगभग 540 वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए थे, किन्तु इस मौखिक साहित्य के पूर्ण ज्ञाता भद्रबाहु थे। उनकी मृत्यु के पश्चात स्थूलभद्र ने पाटलिपुत्र में एक विशाल सभा बुलाई और यथा सम्भव सर्वश्रेष्ठ 12 अंगों तथा धाराओं में धर्म - सिद्धान्तों की पुनः रचना की जिसमें से कुछ आज प्रकाशित भी हो चुके हैं।
जहाँ तक भारतीय संस्कृति में जैन परम्परा के प्रभाव का तथ्य है तो सम्भवत: मौर्य एवं गुप्त कालों के मध्य जैन धर्म एवं जैन संस्कृति के अवशेष पूर्व में उड़ीसा से लंका एवं पश्चिम में मथुरा तक प्राप्त हो सकते हैं किन्तु उत्तरवर्ती कालों में यह धर्म प्रधानता काठियावाड़, गुजरात तथा राजस्थान के भागों में जहाँ श्वेताम्बर सम्प्रदाय की बहुलता थी तथा प्रायद्वीप के मध्य भाग आधुनिक मैसूर और दक्षिणी हैदराबाद जहाँ दिगम्बर का आधिपत्य था दो क्षेत्रों में केन्द्रित हो गया था, किन्तु जैनियों की जन्म भूमि गंगा घाटी पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा।
यद्यपि जैन दार्शनिकों ने अपने धर्मादेशों का विकास किया और अतिसूक्ष्म ज्ञानशास्त्र के सिद्धान्त की सृष्टि की, किन्तु यह मूल शिक्षाएं निश्चित रूप से अपरिवर्तित रही । जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों की स्तुति उसी भांति होती थी जैसे बौद्ध धर्म में बुद्ध की एवं हिन्दू धर्म में हिन्दू देवताओं की। जैन धर्म के विशेष सामाजिक धर्मादेश नहीं थे। एक जनसाधारण के पारिवारिक संस्कार - यथा