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________________ श्रमण-संस्कृति नरेश रुद्रदामा ने भी किया है।” वह कहता है कि संग्राम को छोड़कर अन्यत्र वह मानव वध से निवृत्त रहता है। वैष्णव धर्म के पोषक राजाओं ने भी यज्ञ के सम्पादन को वह महत्व नहीं दिया जो वैदिक परम्परा के पोषकों द्वारा दिया गया है। इसमें संदेह नहीं कि अहिंसा के तत्त्व वैदिक वाङ्मय में यत्र तत्र तथा औपनिषदिक चिन्तन में दिखाई देता है। यहाँ तक कि महासंग्राम का महाकाव्य 'अहिंसा परमोधर्मः' कहकर अहिंसा के माहात्म्य की स्थापना करता है लेकिन जैन मत के अहिंसा-सिद्धान्त ने वैष्णव, शैव से लेकर युद्ध को राजधर्म मानने वाले राजाओं के चिन्तन को भी प्रभावित किया, इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। संदर्भ 1. पाण्डेय, राजबली, हिन्दू धर्म कोश, लखनऊ, 1988, पृ० 70-71 2. अल्तेकर, अनन्त सदाशिव, गुप्त कालीन मुद्राएं, पटना, 1972, पृ० 48 'राजाधिराजः पृथिवीं विजित्वा दिवं जयत्यादृत वाजिमेधः' समुद्र गुप्त की अश्वमेध प्रकार की मुद्रा पर अंकित लेख। 3. ऋग्वेद, 1.164.46 एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति। 4. भास्कर भागचन्द्र जैन, तीर्थंकर महावीर और उनके दशधर्म, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, 1999 5. ऋग्वेद - अस्मे ता इन्द्र सन्तु सत्याहिंसन्तीरूपस्पृशः। विद्याम यासां भुजो धेनूनां न वज्रिवः।। 10.22.13 ।। 6. तत्रैव , 10.157.4, 10.185.2 7. गोयल, श्रीराम, भारतीय अभिलेख संग्रह, भाग 1, जयपुर, पृ० 58-59 द्वादश शिलालेख, गिरनार संस्करण 'न तु तथा दानं व पूजा न देवानांपियो मंजते यथा किति'। 8. महाभारत, आदिपर्व 63/13-17, शान्तिपर्व 9. तत्रैव, सारवढी अस सवपासंगनं सार वढी तु बहुविधा वस तु मूलं य वचिगुती। 10. गोयल, श्रीराम, भारतीय अभिलेख संग्रह, भाग 1, 11. मुण्डकोपनिषद्, 1.2.7, प्लवा हयते अदृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तवरं येषु कर्म। एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरा मृत्युं ते पुनरेवापि यन्ति।।7।।
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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