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श्रमण-संस्कृति ज्ञात होता है कलचुरिकालीन शासन व्यवस्था धार्मिक रूप से सहिष्णु थी। कसिया अभिलेख में विष्णु और शिव के साथ बुद्ध की भी स्तुति की गयी है। कलचुरि नरेश कर्ण ने भी अपनी पुत्री यौवनश्री का विवाह पाल नरेश विग्रहपाल से किया था जो बौद्ध धर्म का अनुयायी था। जाजल्लदेव के रत्नपुर अभिलेख से ज्ञात होता है कि उनके राजपुरोहित रुद्रराशि एक शैवाचार्य में परंतु वे दिड़नाग के बौद्ध दर्शन में भी पारंगत थे। इसी प्रकार कोनी के पाषाण अभिलेख का प्रशस्तिकार शैव होते हुए उसने बौद्ध वाङ्गमय का गहन अध्ययन किया था।
इस प्रकार कलचुरियों के राज्य में बौद्ध धर्म भी अन्य धर्मों के साथ पुष्पित व पल्लवित हुआ। जिसके साक्ष्य हमें अभिलेखों, मूर्तियों, सिक्कों, ईंटों आदि पर अंकित विवरणों तथा चिन्हों से प्राप्त होती है। कलचुरिकालीन समाज वेदकालीन वर्ण व्यवस्था तथा ब्राह्मण धर्म पर आधारित होने पर भी अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु नहीं था। कतिपय उदाहरणों को छोड़ कर बौद्ध धर्म के प्रति कोई भी असहिष्णुता के भाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। यद्यपि कलचुरि नरेश कर्ण जहाँ मगध में मठों का विध्वंस कर रहा था परन्तु यह धार्मिक विद्वेष न होकर अतिक्रमण तथा भ्रष्टाचार के कारण भी हो सकता है क्योंकि दूसरी ओर अतिशदीपंकर का सम्मान भी कर रहा है तथा अपनी पुत्री यौवनश्री का विवाह बौद्ध अनुयायी शासक विग्रहपाल से कर रहा है। अतः सारांश रूप में कह सकते हैं कि कलचुरिकाल में बौद्ध धर्म अन्य धर्मों के साथ सह अस्तित्वपूर्ण ढंग से स्थापित था।
संदर्भ
1. चौबे, महेश चन्द्र, धर्म और दर्शन, कलचुरि राजवंश और उनका युग, सम्पादक,
राजकुमार शर्मा एवं सुशील कुमार सुलेरे पृ० 274 2. मिराशी, वा० वि०, कार्पस इन्सक्रिप्शनम इंडीकेरम, इन्सक्रिप्शन्स ऑफ दि
कलचुरि-चेदि ऐरा, (आगे इस ग्रंथ के लिए सकेत 'क० इ० इ०' का प्रयोग किया ___ गया है।) भाग 4, द्वितीय, अभिलेख सं० 52, पंक्ति 9, 10 3. श्रीवास्तव बृजभूषण, प्राचीन भारतीय प्रतिमा विज्ञान एवं मूर्ति कला, पृ० 184 4. चौबे, महेश चन्द्र, पूर्वोक्त, पृ० 278 5. मिराशी, वा० वा०, अभिलेख सं० 67, श्लोक 01