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जैन धर्म के अहिंसा - सिद्धान्त का ब्राह्मण परम्परा पर प्रभाव हे इन्द्र देव! हमारी प्रार्थनाएं एवं शुभकानाएं आपके सामीप्य को प्राप्त कर 'सत्य रूप' एवं 'हिंसा रहित' हों। यहाँ स्पष्ट है कि कोई ऐसी कामना जो पर पीड़ा का कारण हो उसे आप परिष्कृत करें। इसी प्रकार ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में मित्र देव को अहिंसक एवं प्रिय कहा गया है। प्रियता दो पक्षों के द्वैत को समाप्त कर एकीकृत अर्थात् सखा होने का भाव प्रकट करता है और इस अद्वैत स्थिति में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होता। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अहिंसा और सत्य का अविनाभाव सम्बन्ध भारत में अति प्राचीन काल से रहा है। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर वृत्र आदि असुरों को असत्य बोलने के कारण ‘हिंसक' कहा गया है। इनके लिए 'दुःशंस', 'अधशंस्' जैसे विशेषणों का प्रयोग हुआ है। आचार्य सायण ने 'दुःशंस' की व्याख्या विद्यमान को अविद्यमान कहने वाले अर्थात् असत्यवादी हिंसक किया है। इन स्थलों पर असुरों से देवों की कटुता, प्रतिस्पर्धा का कारण असुरों का असत्यवादी होना भी प्रतीत होता है। असत्य वाचिक हिंसा का मूलाधार है, यहाँ वाचिक हिंसा का बीज विद्यमान है जो 'हिंसा' की पहली सीढ़ी है। वाक् संयम पर प्रायः दोनों ही धाराओं में विशेष बल दिया गया। ऐतिहासिक काल खण्ड में मौर्य सम्राट अशोक वचन में गोपन' (वाक् संयम) को सभी सम्प्रदायों की सारवृद्धि का मंत्र कहता है। दूसरी तरफ वाक् संयम न रखने के कारण अनेक पौराणिक राजाओं को दुर्गति का सामना करना पड़ा। महाभारत से ज्ञात है कि परम वैष्णव महान राजा वसु उपरिचर ने परिस्थितिगत दबाव में एक बार असत्य कथन कर दिया, जिससे सप्तर्षियों को अत्यन्त आघात लगा, वसुअरियर को यह कह कर पाताल लोक जाने का दण्ड मिला कि जान बूझ कर आपने अन्न अर्थ वाची 'अज' का अर्थ 'बकरा' बता दिया है। जो अपराध की कोटि में आता है। __ध्यातव्य है कि पौराणिक राजाओं में चेदि देश (मध्य प्रदेश के गुना का समीपवर्ती क्षेत्र) का यह वह पहला राजा है जिसने यज्ञ में पशुवध का निषेध किया, यह वैष्णव धर्म से प्रभावित था। जैन धर्मावलम्बी कलिंग नरेश खारवेल बड़े गर्व से अपने को 'वसुराजविनिश्रितो' कहता है। खारवेल द्वारा वसु से अपने सम्बन्ध की विज्ञप्ति सिद्ध करती है कि बसु भी जैनियों की तरह 'अहिंसा' धर्म में विश्वास रखता था।