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बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता
धारणा रखना) और सम्यक् समाधि ( मन अथवा चित्त की एकाग्रता ) का निर्देश दिया। बौद्ध व्यवस्था में इन आठों को प्रज्ञा, शील और समाधि इन तीन स्कन्धों के अन्तर्गत रखा गया है। ऐसा माना गया कि प्रज्ञा से दृष्टि संक्लेश, समाधि से तृष्णा संक्लेश और शील से दुश्चरित संक्लेश की शुद्धि होती है । बोधिपाक्षिक धर्मों पर विचार से ज्ञात होता है कि बुद्धोपदिष्टि मार्ग में संयम, पुरुषार्थ, जागरूकता, और एकाग्रता का विशेष महत्व था । तथागत ने मार्ग के रूप में मुख्यतः एक ऐसी आचार संहिता का उपदेश दिया जो मनुष्य के आध्यात्मिक उन्नयन के लिए आज भी अत्यन्त प्रासंगिक है।
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बौद्ध धर्म की प्रगति ने भारतीय सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन के विभिन्न पक्षों को अनुप्राणित करने में बहुमूल्य योगदान दिया। बौद्ध धर्म ने ही सर्वप्रथम भारतीयों को एक सरल तथा आडम्बररहित धर्म प्रदान किया जिसका अनुसरण राजा रंक, ऊंच-नीच सभी कर सकते थे। धर्म के क्षेत्र में इसने अहिंसा एवं सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया । अशोक, कनिष्क, हर्षवर्धन आदि राजाओं में जो धार्मिक सहिष्णुता देखने को मिलती है वह बौद्ध धर्म के प्रभाव का परिणाम थी । अशोक ने युद्ध विजय की नीति का परित्याग कर धम्मविजय की नीति को अपनाया तथा लोककल्याण का आदर्श विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया ।
बौद्ध धर्म के उपदेश तथा सिद्धान्त पाली भाषा में लिखे गये जिससे पाली भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ। बौद्ध संघों की व्यवस्था लोकतंत्रात्मक प्रणाली पर आधारित थी । इसके तत्वों को हिन्दू मठों तथा बाद में राजशासन में ग्रहण किया गया।
भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र की प्रगति बौद्धधर्म के प्रभाव से ही हुई । बौद्ध दर्शन में शून्यवाद तथा विज्ञानवाद की जिन दार्शनिक पद्धतियों का उदय हुआ उनका प्रभाव शंकराचार्य के दर्शन पर पड़ा। यही कारण है कि शंकराचार्य को कभी-कभी प्रच्छन्न-बौद्ध भी कहा जाता है।
बौद्ध धर्म ने लोगों के जीवन का नैतिक स्तर ऊंचा उठाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जन-जीवन में सदाचार एवं सच्चरित्रता की भावनाओं का विकास हुआ। बुद्ध स्वयं नैतिकता को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे तथा ज्ञान से