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श्रमण-संस्कृति भिक्षुओं ने तीसरी सदी ई० पू० से विदेशों में जाकर बौद्ध धर्म और सिद्धान्त का प्रचार किया।
अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए लंका भेजा था। इस युग में अनेक बौद्ध प्रचारक तिब्बत, चीन, और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में गये थे। पश्चिम में यूनान आदि देशों में भी अशोक के प्रतिनिधि भेजे गए थे। परिणाम यह हआ कि विदेशों से बौद्ध अनुयायियों का भारत आना प्रारम्भ हो गया। उनके भारत आने का मुख्य उद्देश्य था बौद्ध धर्म के तीर्थस्थानों की यात्रा करना और तत्सम्बन्धी साहित्य संकलित करना। इस प्रकार धर्म के माध्यम से बड़े स्तर पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ तथा दूसरे देशों में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ।
भारत और भारत के बाहर देशों में अहिंसा और दया की भावना का प्रसार बौद्ध धर्म के ही माध्यम से हुआ था। बौद्धों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए कभी पाशविक बल का उपयोग नहीं किया। सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभावना ही उनकी लोकप्रियता में प्रधान कारण हुई। बौद्ध धर्म के उपदेश तथ सिद्धान्त पाली भाषा में लिखे गये जिससे पाली भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ। बौद्ध संघों की व्यवस्था जनतन्त्रात्मक प्रणाली पर आधारित थी। इसके तत्वों को हिन्दू मठों तथा बाद में राजशासन में ग्रहण किया गया। ___ भारत में विद्या और ज्ञान के विकास में भी बौद्धों का अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान रहा। संस्कृत व्याकरण में चन्दगोमि की व्याकरण का अपना विशेष स्थान है, संस्कृत में अत्यन्त प्रसिद्ध कोश'अमरकोश' के रचयिता अमरसिंह बौद्ध थे। आयुर्वेद की रसायन शाखा के विकास में आचार्य नागार्जुन ने महत्वपूर्ण कार्य किया। कालिदास से पूर्व महाकवि अश्वघोष' ने 'बुद्धचरित'
और 'सौदरानन्द' जैसे 'महाकाव्य', और 'राष्ट्रपाल' व 'सारिपुत्र' जैसे नाटक लिखकर संस्कृत काव्य की उस धारा को प्रारम्भ किया, जिसे आगे चलकर कालिदास और भवभूति ने बहुत उन्नत किया। हर्ष ने 'नागानन्द' लिखकर बोधिसत्व का आदर्श चित्रण किया।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि बौद्ध एवं जैन धर्म का भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा है।