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श्रमण-संस्कृति पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने पहले तो उपेक्षा करने का निश्चय किया, पर निकट आने पर उनकी धीर-गम्भीर मुद्रा से प्रभावित होकर, अपनी प्रतिज्ञा भूलकर, उनका यथोचित आदर सम्मान किया। बुद्ध ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को इस अवसर पर एकाधिक उपदेश दिये थे, कभी कुछ को और कभी अन्य को। परन्तु यह कहा गया है कि कौण्डिन्य को सर्वप्रथम ज्ञान मिला और क्रमशः वत्प, भद्दिय, महानाम और अश्वजीत को। यह रोचक है कि विमल धर्म - चक्षु उत्पन्न होने के बाद कौण्डिन्य आदि उपर्युक्त पांचों ने बुद्ध के समक्ष प्रव्रज्या और उपसम्पदा प्राप्त करने की प्रार्थना की और बुद्ध ने उन्हें भिक्षु के रूप में ग्रहण किया।
ऋषिपत्तन मृगदाव में पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को दिये गये उपदेश का स्वरूप यद्यपि निर्विवाद नहीं, परन्तु सुख-भोग और कार्य क्लेश दोनों ही अन्तों से बचते हुए मध्यम मार्ग के अनुसरण के उपदेश के प्रारम्भिक होने के संदर्भ में विद्वान प्रायः एक मत है। वस्तुतः इसी को बौद्ध धर्म का सार, और पञ्चवर्गीय भिक्षुओं की प्रव्रज्या के साथ ही बौद्ध संघ की स्थापना स्वीकार करनी चाहिये।
सद्धर्म में जनसामान्य को 'भिक्षु' रूप में दीक्षित करने की प्रक्रिया वाराणसी के अतिसम्पन्न श्रेष्ठी-पुत्र यश की ऋषिपत्तन में ही प्रव्रज्या से प्रारम्भ हुई। यश को बुद्ध के समान ही संवेदनशील चित्रित किया गया है और सांसारिक सुख-वैभव से खिन्न । उपलब्ध विवरण के अनुसार बुद्ध से उसकी आकस्मिक भेंट हुई,. परन्तु वह उनके उपदेश से प्रभावित होकर सद्धर्म में दीक्षित हुआ तथा पञ्चवर्गीय भिक्षुओं की तरह शीघ्र ही उसने भी अर्हत्व प्राप्त किया। तत्पश्चात् उसके पिता, परिवार के अन्य सदस्य तथा मित्र धीरे - धीरे सद्धर्म में प्रविष्ट हुए, परन्तु सम्पूर्ण विवरण को सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर इसमें भी शंका नहीं रहती कि बुद्ध ने यश और उसके परिवार के सदस्यों आदि को सद्धर्भ में प्रवेश के लिए सर्वथा उपर्युक्त पात्र समझा और उन्हें सद्धर्म में प्रविष्ट करने का यथा सम्भव प्रयत्न किया। जहाँ एक ओर यश की भेंट आकस्मिक कही गयी है वहीं दूसरी ओर यश की खोज में आये हुए उसके पिता तुरन्त अपने पुत्र को देख न सकें इसके लिए बुद्ध को चमत्कार प्रदर्शित करते हुए भी दिखाया गया है। ऐसा आभास होता है कि बुद्ध न केवल यश को अपने वैराग्य के निश्चय से विचलित हुआ नहीं देखना चाहते थे।