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जैन दर्शन एवं संस्कृत साहित्य-शास्त्र शताब्दी में देवेश्वर पर्यन्त लगभग 250 वर्ष तक गुजरात का अनहिलवाड़ा राज्य जैन विद्वानों और साहित्यकारों का केन्द्र बना रहा। संस्कृत साहित्य शास्त्र इनके माध्यम से जैन दर्शन के महत्वपूर्ण तत्त्वों से समृद्ध हुआ। संस्कृत साहित्यशास्त्र को जैन आचार्यों का योगदान
जिस प्रकार जैन धर्म और दर्शन की अहिंसा और करुणा को बौद्धधर्म ने भी ग्रहण किया और कालान्तर में वैष्णवों ने इसे अंगीकार किया उसी प्रकार संस्कृत साहित्यशास्त्र भी जैन धर्म की इन विशेषताओं से समृद्ध हुआ। जैन धर्म की मूल प्रकृति में सहिष्णुता रही है। उसमें कोई मत या विचार बलात आरोपित करने का चिन्तन ही नहीं हुआ है। इसलिए साहित्य के सम्बन्ध में रस, अलंकार आदि की महत्ता को स्वीकार करते हुए अत्यन्त सहज और विनम्र तरीके से जैन आचार्यों ने साहित्यशास्त्र में जैन तत्त्वों का समावेश किया है. जिससे आरोपित करने की किसी प्रकार की अनुभूति नहीं होती। इसलिए कभी-कभी विद्वानों को यह सन्देह होता है कि क्या वास्तव में जैन आचार्यों द्वारा समावेश किया गया है? सतही दृष्टिकोण से यह दृष्टिगोचर नहीं होता किन्तु जब हम जैन धर्म और दर्शन के मूल तत्त्वों और जैन धर्म और दर्शन के मूल तत्त्वों और जैन आचार्यों की रचनाओं पर उसका प्रभाव सूक्ष्म दृष्टि से करते हैं, तो यह स्पष्ट दिखाई दे जाता है। साहित्य में करुण रस को जो महत्ता प्राप्त हुई उसमें जैन आचार्यों के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
संदर्भ 1. जैन धर्म एवं दर्शन, डॉ. पुरुषोत्तम शास्त्री, पृष्ठ (115-122) 2. संस्कृत वाङ्गमय का इतिहास, प्रो० राधा वल्लभ त्रिपाठी, चतुर्थ खंड 3. काव्य मंडनः मण्डल हेमचन्द्रा चार्म ग्रन्थावली 17, सन् 1920 4. गुजरात और जैन धर्म, अवनीश मिश्र।