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श्रमण-संस्कृति
महाकवि और अलंकारकर्ता कहा गया है उससे यही प्रतीत होता है कि अलंकारशास्त्र में वाग्भयलङ्कार तथा काव्यानुशासन ग्रन्थों के साथ 'नेमिनिर्वाण' महाकाव्य तथा ऋषभदेव चरित जैसे काव्यों के रचयिता भी यही वाग्भट हैं। उस दशा में छन्दोनुशासन तथा 'अष्टाङ्गहृदयसंहिता' का रचयिता भी इन्हीं को मानना उचित होता है। इनकी रचनाओं में अलंकार के सौन्दर्य के साथ-साथ जैन तत्त्वों का समावेश हुआ है जो इनके काव्य- कौशल का प्रतीक है।
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जैन आचार्यों की परम्परा में अगला नाम अरिसिंह - अमरचन्द का आता है । जिस प्रकार रामचन्द्र और गुणचन्द्र दोनों एक ही गुरु के शिष्य थे और दोनों ने मिलकर 'नाट्यदर्पण' की रचना की थी उसी प्रकार अरिसिंह और अमरचन्द दोनों एक ही गुरु जिनदत्त सूरि के शिष्य हैं और उन दोनों ने मिलकर ‘काव्यकल्पलता' नामक ग्रन्थ की रचना की है। (काव्यकल्पलत्तावृत्ति, पृष्ठ - 1 ) । अमरसिंह के पिता का नाम लावण्य सिंह था । इन्होंने गुजरात के ढोलका राज्य के राजा धीर धवल के मंत्री और अपने मित्र वस्तुपाल जैन की स्तुति में 'सृहत्संकीर्तन' नामक काव्य लिखा है। अमरचन्द ने काव्यकल्पलतावृत्ति में अपने छदोरत्नावली, काव्यकल्पलता परिमल और अलंकार प्रबोध नामक तीन ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त इन्होंने जिनेन्द्र चरित, जिसका दूसरा नाम पद्मानन्द भी है, की रचना की है।
काव्यकल्पलतावृत्ति में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के मार्ग को छोड़कर नवीन मार्ग का अवलम्बन किया गया है। उसका विषय कवि शिक्षा है । उसमें गुण, दोष, अलंकार आदि का विवेचन न करके काव्य रचना के नियमों का प्रतिपादन किया गया है । कवि बनने के इच्छुक व्यक्ति किस प्रकार अपने लक्ष्य को सरलता से प्राप्त कर सकते हैं उन्हीं उपायों का वर्णन इसमें किया गया है। इस ग्रन्थ में चार प्रतान हैं जिनमें छन्दः सिद्धि, शब्दसिद्धि, श्लेष सिद्धि और अर्थ सिद्धि के उपायों का प्रतिपादन किया गया है।
अरिसिंह और अमरचन्द के बाद 14वीं शताब्दी में ही देवेश्वर नामक एक और जैन विद्वान हुए हैं। उन्होंने कविविकल्पलता नामक ग्रन्थ की रचना की है। किन्तु यह ग्रन्थ पूर्वोक्त काव्यकल्पलता से लिया गया है। इसलिए इस ग्रन्थ का अपना कोई मूल्य नहीं है।
इस प्रकार ग्यारहवीं शताब्दी में आचार्य हेमचन्द्र से लेकर चौदहवीं