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भारतीय संस्कृति पर बौद्ध एवं जैन धर्म का प्रभाव
237 एशिया, बुखारा, जावा, सुमात्रा, वर्मा, लंका आदि देशों के विद्यार्थियों को अध्ययन के लिए भारत आने की लालसा से युक्त किया।
बौद्ध कलाकृतियों से विदित होता है कि विविध कलाओं, शिल्पगत व्यवसायों, उद्योग-धन्धों, घुड़सवारी, तीरन्दाजी, दस्तकारी आदि विविध कृत्यों की गुणात्मक अभिवृद्धि में निश्चय ही बौद्ध कला शिल्पियों का भी योगदान था। बौद्ध ग्रन्थों में रथकार, घुड़सवार, हस्त सवारी, रसोइया, नाई, हलवाई, धोबी, जुलाहे, कुम्हार, मुनीम आदि कर्मगत धन्धे करने वाले संगठन के संचालकों का उनके व्यावसायिक नियमों का वर्णन मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्व काल से चली आ रही भारतीय वर्ण आश्रम व्यवस्था जहाँ चार वर्णो एवं चार आश्रमों का अस्तित्त्व माना जाता था। उस व्यवस्था के सापेक्ष समाज में विविध जातियों को अस्तित्व में आना बौद्ध धर्म की देन माना जायेगा। बौद्ध में धर्म आस्था के परिणामस्परूप तत्कालीन श्रेष्ठि वर्ग ने व्यापार एवं वाणिज्यिक गतिविधियों को काफी उत्कर्ष पर पहुंचाया, जिसका परिणाम हुआ कि वेद पाठी ब्राह्मण अपने निश्चित कर्म को छोड़कर व्यापार एवं वाणिज्य की ओर उन्मुख हुए। उनमें लिप्सा, मोह, संग्रह आदि के प्रवृत्तियों का विकास हुआ। व्यापार कर्म साधारणतया वंश कर्म पर अवलम्बित माना जाता है। फलतः जो वेदपाठी ब्राह्मण क्षत्रिय श्रेष्ठि कर्म से जुड़ा, वह कालान्तर में उसी के पहचान से युक्त हो गया। भारत के श्रावस्ती, राजगृह, पाटलीपुत्र, कौशाम्बी, उज्जैनी, विदिशा आदि तत्कालीन महानगरों में ऐसे अनेक श्रेष्ठि परिवार अद्यावधि निवास करते हैं, जिनकी मूल पहचान ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय
सार संक्षेप रूप से यह कहा जा सकता है कि बौद्ध एवं जैन धर्म की मान्यताओं, परम्पराओं, दार्शनिक सिद्धान्तों का भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों पर प्रभाव पड़ा है। भारतीय कला, परम्परा, व्यापार, वाणिज्य, शिक्षा, साहित्य, समाज एवं संस्कृति की सतत प्रवाहमान सरिता बौद्ध एवं जैन धर्म की सांस्कृतिक जलधारा को लेकर सम्पूरित रही है।
सन्दर्भ 1. आचारांग सूत्र 12/1/5 ।