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श्रमण-संस्कृति मानसिक रूप से भी अहिंसक होने का प्रयास करना चाहिये और मानसिक अहिंसा तभी आयेगी जब हम चाहें कि -
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत्।। भारतीय संस्कृति की आदर्श प्रार्थनाएं बौद्ध धर्म द्वारा प्रतिपादित अहिंसा पर ही आधारित हैं। कल्याणकारी ज्ञान, भले-बुरे, पाप-पुण्य को पहचानने की दृष्टि, दृढ़ विचार, चारित्रिक श्रेष्ठता, सदाचार, सत्यवचन बोलना, (जिसमें विनम्रता व मधुरता हों), सत्कर्म करना, दान, दया, सत्य, सेवा, अहिंसा, चित्त भी एकाग्रता, जीविकोपार्जन के नैतिक मार्ग का अनुकरण, इन्द्रियों का संगम, बुरी भावनाओं का परित्याग, शुभ व मंगलकारी भावनाओं का विकास करते हुये मनुष्य को अपने जीवन के सभी कार्य पूरी सावधानी व विवेक के साथ करने चाहिये। महात्मा बुद्ध एक यथार्थवादी व सुधारवादी भी थे। उनका विचार था कि संसार में सर्वत्र दुःख व्याप्त है और मानव जीवन में दुःखों के कई कारण हैं - भौतिक वस्तुओं का सुख भोगने की वासना, काम तृष्णा, भव तृष्णा (जीने की तृष्णा), विभव तृष्णा (पुनर्जन्म प्राप्त करने की तृष्णा) आदि। इन दुःखों के निवारण के लिये बौद्ध धर्म में संतुलित व सरल जीवन की ओर अग्रसर करने वाले अष्टांगिक मार्ग का प्रतिपादन किया है। इसमें आठ सदाचारी व नैतिक सिद्धान्तों को अपनाने पर जोर दिया गया है। वह अष्टांगिक मार्ग में अति का विरोध करते हुये भोग-विलास व कठोर तप के बीच का मार्ग बताया गया है।
भारतीय संस्कृति को बौद्ध धर्म की एक विशिष्ट देन लोकतांत्रिक प्रणाली पर आधारित सामुदायिक जीवन की व्यवस्था है। बौद्ध धर्म के उदय से पहले ब्राह्मण धर्म के सन्यासी, ऋषि-मुनि आदि एकांकी जीवन व्यतीत करते थे, वनों व आश्रमों में रहते हुये आध्यात्मिक चिन्तन, मनन व धर्मोपदेश दिया करते थे। उन्हें संगठन बनाकर व्यवस्थित जीवन जीने की कला का बोध नहीं था। महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्मावलम्बियों को संगठित कर उनका एक संघ बनाया तथा उन्हें अनुशासनबद्ध सामाजिक जीवन बिताने का आदेश दिया। उनके संयमी जीवन, अनुशासन व सदाचार के लिये कठोर नियम बना दिये थे