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श्रमण-संस्कृति यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।।'
(ईश० 7) बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों, विचारों व नैतिकता की स्पष्ट छाप भारतीय सभ्यता व संस्कृति पर दिखायी देती है। महात्मा बुद्ध के अहिंसा के सिद्धान्त से ब्राह्मण जनसमुदाय भी प्रभावित हुआ तथा ब्राह्मणों ने भी प्राणिमात्र व जीवों पर दया का उपदेश देना शुरू कर दिया। वैदिक धर्म में भी पशुबलि व नरबलि का प्रचलन कम होने लगा था। बौद्ध धर्म ने हिन्दू धर्म पर मानव दयावाद का प्रभाव डाला तथा बौद्ध धर्म के ही प्रभाव स्वरूप भागवत धर्म का विकास हुआ जिसमें 'अहिंसा परमो धर्मः' के मार्ग को अपनाने पर जोर दिया गया। भारत में जो बुद्ध हुआ वह भी करूणा से ही प्रेरित होकर हुआ। जो महावीर बना वह भी अहिंसा से ही बना, बुद्ध ने ही कहा था कि हंस का शिकार करने वाले शिकारी का हंस पर कोई अधिकार नहीं है वरन् हंस को बचाने वाला ही हंस पाने का अधिकारी है। हमारे देश में तो आदि कवि की जिह्वा पर भी करूणा से ओत-प्रोत शब्द ही प्रस्फुटित हुये थे -
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्कौञ्चमिथुनादेकमवधीः कृताः काममोहितम्॥ भारतीय संस्कृति में अहिंसा, दया, करुणा व परोपकार के मानवीय मूल्य बौद्ध धर्म की ही देन है। भारतीय संस्कृति का वैचारिक आधार यहाँ का दर्शन एवं चिन्तन रहा है, जीवन के प्रति भारतीयों की विचारधारा ही भारतीय संस्कृति में अभिव्यक्त हुयी है। मनुष्य के नैतिक आदर्शों का आधार सत्य है
और सत्य का विस्तार ही कर्म है। बौद्ध धर्म कर्म प्रधान है। बुद्ध ने युक्तिपूर्वक समझाया है कि मनुष्य का यह जीवन और परलोक का जीवन उसके स्वयं के कर्मों पर अवलम्बित है। 'प्राणी कर्मस्वक है, कर्मदायक है और कर्म प्रतिशरण है।' यह भूलोक कर्मभूमि है, अतः कर्म से ही मनुष्य की पहचान होती है -
न जातु कश्चित्क्षणमपि तिष्ठत्यकर्मकृत्।
अतः कर्म के बिना कोई व्यक्ति क्षण भी नहीं रह सकता है। कर्म की व्यापकता, प्रभावशीलता व अपरिहार्यता सर्वजनसिद्ध है। मनुष्य जैसा कर्म