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जैन धर्म में कर्म सिद्धान्त
7. तपस्या- वाध्य और अभ्यान्तर प्रकार से अनशन आदि वाहय तप है तथा प्रायश्चित आदि अभ्यान्तर तप कहलाते हैं। इन्हीं निरोधों से कर्म की मुक्ति होती है जिसे मोक्ष कहते हैं।
जैन धर्म के कर्मवाद का पूर्णज्ञान जैनागम साहित्य में विशेषतः आचारांग, स्थानांग, समबायांग व्याख्या प्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना एवं उत्तराध्ययन सूत्र से जैन कर्म सिद्धान्त का ज्ञान होता है जिसके अनुसार कर्म से पुनर्जन्म आदि की सहज एवं अनिवार्य क्रियाओं का होना 'जीव' का लक्षण है। कर्म की निरन्तरता से जीव जगत में अवद्ध हो जाता है। यही कर्म बन्धन पुनर्जन्म का कारण बनता है । पुनर्जन्म ही कर्म का बन्धन है किन्तु एक ही जन्म में मोक्ष प्राप्ति अथवा कर्म मुक्ति के लिये जैन दर्शन ने आठ प्रकार की निरोध शक्तियों के अभ्यास करने से कर्मवध से कर्म मोक्ष होता है। इसका विश्लेषण किया है जो अन्य धर्मों से पृथक एवं मौलिक है।
सन्दर्भ
1. मोहन लाल मेहता, जैन धर्म दर्शन, पृ० 425-261
2. विशेषावाश्यक भाष्य, 1610-1612
3. नेमिचन्द आर्य, कर्म प्रकृति, पृ० 6 |
4. तन्त्रवार्तिक 2/1/51
5. मोहन लाल मेहता, जैन धर्म दर्शन, पृ० 460 1
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6. आत्मान मीमांसा, पृ० 134-1521
7. मोहन लाल मेहता, जैन धर्मदर्शन पृ० 492 । 8. पण्डित सुखलाल, कर्म विपाक, पृ० 1111 9. वही ।
10. वही ।