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बौद्ध शिक्षा परम्परा का आधुनिक भारतीय शिक्षा पर प्रभाव 191 में नहीं मिलता है। इस काल में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था अभिभावकों को स्वयं करनी पड़ती थी।
इन सबके विपरीत बौद्धकालीन प्राथमिक शिक्षा के प्रभाव से वर्तमान भारत में प्राथमिक शिक्षा को आधारभूत शिक्षा मानकर इसके उन्नयन और विकास हेतु लगातार प्रयत्न होते रहे हैं। विशेषतया ब्रिटिश कालीन भारत में जब अंग्रेज केवल उच्चवर्ग के थोड़े से लोगों को शिक्षा देने का छनाई सिद्धान्त स्थापित करने में लगी थी। भारतीय नेतृत्व एवं आम भारतीय जनमानस स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ साथ जनशिक्षा का अवसर पाने के लिए भी लड़ाई लड़ रहे थे। अन्ततः 1911 में गोपालकृष्ण गोखले ने बड़ौदा नरेश गायकवाड द्वारा अपने राज्य के बच्चों के लिए कराये गये निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था का दृष्टान्त रखते हुए ब्रिटिश भारतीय सरकार के समक्ष 'निशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा' का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव उस समय तो पारित न हो सका, किन्तु शिक्षा जगत् में यह प्रयास 'मील का पत्थर' साबित हुआ। 1937 में गांधी जी की बेसिक शिक्षा योजना इसी प्रयास की एक महत्वपूर्ण कड़ी कही जा सकती है। इन सबके फलस्वरूप देश की स्वतंत्रता के पश्चात संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में यह उल्लेख किया गया कि सरकार संविधान लागू होने के दस वर्ष के भीतर 6 से 14 आयु वर्ग के बालक बालिकाओं के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करेगी। वर्तमान में भी सर्वशिक्षा अभियान के माध्यम से इसी उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है।
बौद्धकालीन शिक्षा के पूर्व इस देश में शिक्षा की जो व्यवस्था थी, उसमें प्रायः एकल शिक्षक ही हुआ करते थे। वैदिककालीन गुरुकुलीय प्रणाली में गुरु के आश्रम ही विद्यालय के रूप में कार्यरत थे, जहाँ अधिकतम 10 से 15 विद्यार्थी ही शिक्षा ग्रहण करते थे। गुरु इन्हें सभी विषयों का समग्र ज्ञान कराते थे, अतः अलग अलग विषयों को पढ़ाने के लिये अलग अलग शिक्षकों की आवश्यकता नहीं थी। ये शिक्षक प्रायः ब्राह्मण वर्ग के ही होते थे। किन्तु बौद्ध कालीन शिक्षा में अलग अलग विषयों को पढ़ाने के लिए विशिष्ट विषयों के विशेषज्ञ के रूप में अलग अलग शिक्षक उपलब्ध होने लगे थे, साथ ही इस