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श्रमण-संस्कृति गंगा से उनके निकट सहचर्य व उसके सम्बन्ध में स्पष्ट व प्रत्यक्ष ज्ञान की सूचना देते हैं। सुत्त निपात के धनियसुत्त से भगवान् बुद्ध के मही नदी के तट पर एक खुली कुटिया में निवास करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
कुणाल जातक तथा महावेस्सन्तर जातक' में हिमालय पर्वत, उसकी वनस्पतियों व जीवों का विशद् वर्णन उपलब्ध है। कुणाल जातक का उपदेश भगवान् बुद्ध ने हिमवन्त प्रदेश में ही दिया था। संयुक्त निकाय के रज्जसुत्त में बुद्ध के हिमालय प्रदेश में जाने व वहाँ एक अरण्यकुटिका में निवास करने का उल्लेख है।
उपर्युक्त विवरण से यह सहज निगमित किया जा सकता है कि बुद्ध का सम्पूर्ण जीवन पर्यावरणीय उपादानों यथा-वृक्ष या वन, नदी व पर्वत आदि के घनिष्ठ साहचर्य में बीता। निस्संदेह यह तत्कालीन जन-जीवन पद्धति की ओर भी संकेत करता है। वर्तमान पर्यावरणीय संकट के संदर्भ में बुद्ध का पर्यावरणीय उपादानों के साथ यह अंत:गुंफन वर्तमान मनुष्य को भी सही दिशा निर्देश देता है। आखिर मनुष्य कब तक अपने तात्कालिक लाभ हेतु पर्यावरणीय उपादानों के साथ अन्याय करता रहेगा? क्या हम धरती, नदियों, जंगलों, पर्वतों को इसी तरह दूषित-विकृत करते ही चले जाएँगे? इस दुष्चक्र से किस तरह बच सकेगी प्रकृति व मनुष्य जाति? इन प्रश्नों के समाधान हेतु हमें बुद्ध की जीवन-चर्या से सीख लेकर यह उद्घोष करना होगा कि- 'मुड़ो प्रकृति की ओर, बढ़ो मनुष्यता की ओर।'
सन्दर्भ 1. जातक, जिल्द 5वीं, पृष्ठ 2, 5, 6 2. जिल्द दूसरी, पृ० 429 3. जातक, जिल्द तीसरी, पृ० 226, 227; जिल्द चौथी, पृ० 310 4. जातक, जिल्द चौथी, पृ० 310 5. बुद्धचर्या, पृ० 5 (भूमिका) 6. एन्शियंट ज्योग्रफी ऑफ इंडिया, कनिंघम, पृ० 485-90 7. पब्बज्जा सुत्त (सुत्त निपात); जातककथा, पठमो भागो, पृ० 50 8. ललितविस्तर, पृ० 406-07 में उरूवेला से ऋषिपतन तक की यात्रा का क्रमिक
विवरण है, जबकि पालि त्रिपिटक में बीच की यात्रा का विवरण नहीं है।