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बौद्ध साहित्य में संगीत सिन्धु घाटी की सभ्यता का पता चलता है। पुरातत्ववेत्ताओं तथा इतिहासकारों की सम्मति से ये वस्तुएं ईसा से 4500 से 5000 वर्ष पूर्व की है। __सबसे पहले सन् 1622 ई० में श्री राधाकृष्ण बनर्जी ने सिंधु के नीचे की ओर लरकाना से लगभग पच्चीस मील दक्षिण में पुराने पर्वत के एक खंडहर को खोजा। फिर सर र्जान मार्शल, श्री नैनोगोपाल मजूमदार, रायबहादुर दयाराम शाहनी, अरनेस्ट मैके (Earnest Mackay), रायबहादुर रामप्रसाद चंद्र, रायबहादुर के० एन० दीक्षित, श्री ह्वीलर इत्यादि अनेक विद्वानों ने इन खंडहरों की खुदाई कराई। इस खुदाई में जो अनेक वस्तुएं प्राप्त हुई उनमें श्री शंकर भगवान की तांडव नृत्य करती हुई एक मूर्ति तथा कांसे की बनी नग्न नारी की एक मूर्ति, जिसके एक हाथ में बहुत-सी चूड़ियां हैं और जो नृत्य की मुद्रा में है, उपलब्ध हुई है। इनके अतिरिक्त अनेक ऐसे चित्र भी मिले हैं, जिनमें नृत्य के उत्कृष्ट नमूने भी प्रस्तुत किये गये हैं। उन खंडहरों की दीवारों पर सांगीतिक चित्र भी मिले हैं।
ईसा के 563 वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था। इस काल के संगीत में जीवन हुआ था। इस काल के संगीत में जीवन की व्यापकता का समावेश अधिक हो गया अतः वही संगीतज्ञ सफल समझा जाता था जो कि अपने संगीत प्रदर्शन से मानव को समस्त विकारों से ऊपर उठा सके भगवान बुद्ध के संपूर्ण सिद्धांतों को गीतों की लड़ियों में पिरो दिया गया था जिसका सुंदर ढंग से गायन करके गांव-गांव और नगर-नगर की सुप्त जनता को जागरण के भव्य रथ पर लाया गया। इस काल में वीणा पर ही गायन होता था। शास्त्रीय संगीत अपने पूर्ण यौवन पर था। वास्तव में यह युग प्रकाशपूर्ण संगीत का था। संगीत पर जो वासना की धुन्ध छाई हुई थी वह विनष्ट हो गई थी। इस युग में संगीत पर कुछ सुंदर ग्रंथ भी लिखे गए थे।
बुद्ध के भावी श्वसुर ने विवाह से पूर्व यह शर्त रखी थी कि अपनी कला सम्पन्न पुत्री के लिए उसके भावी वर को संगीतादि कलाओं में निपुण सिद्ध करना होगा। पितृपुत्र-समागम कथा में उल्लेख है कि बुद्ध के जन्मोत्सव पर पांच सौ वाद्यों का वृंदवादन हुआ था। नर्तकियों और गणिकाओं का संगीतज्ञों के रूप में विशेष सम्मान था। बौद्ध विहारों में आराधना के लिए नियुक्त