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- संस्कृति
श्रमण
बौद्ध व विशेषकर जैन धर्म में अहिंसा पर अधिक जोड़ दिया गया था जिससे साम्राज्य निर्माताओं के लिए इनके मतों को स्वीकार करना कठिन था। कृषि से जुड़े लोगों को भी जैन विचारों को स्वीकार करना संभव न था, क्योंकि कृषि कार्य में कीड़े मकोड़ों की मृत्यु होती ही है।
जैन धर्म में निर्वाण की प्राप्ति हेतु कष्टसाध्य तप व कायाक्लेश का विधान तथा समाज के बंधन यथा वस्त्रों का परित्याग जैन धर्म को समाज में व्यापक स्वीकार्यता नहीं प्रदान करने दिया ।
इसके अतिरिक्त जैन व बौद्ध धर्म में प्रचारकों की कमी रही। दोनों धर्मों के अन्तर्गत अनेक संप्रदाय भी फूट पड़े जो एक दूसरे का विरोध करते थे । मठ पाप व षड़यंत्र का केन्द्र बन गया । ब्राह्मण धर्मावलंबी राजाओं ने भी बौद्ध व जैन मतों का फैलाव का भारत में विरोध किया ।
वहीं शंकराचार्य, कुमारिभट्ठ और अन्य वैदिक आचार्यों ने वैदिक धर्म का खूब प्रचार किया दूसरे भारत में वैदिक ब्राह्मण धर्म के तहत भक्ति / धार्मिक आन्दोलन बाद की शताब्दियों में हुआ जिसमें बौद्ध व जैन धर्म की भांति समाज के हर वर्गों के लिए मुक्ति व सतमार्ग की राह का स्थानीय सरल भाषाओं में विभिन्न आचार्यों ने अपना उपदेश दिया। बुद्ध को भी हिन्दु अवतार की श्रेणी में मान्यता दी गयी। इस सभी ने पुन: हिन्दु धर्म का उद्धार किया तथा जैन व बौद्ध धर्म का भारत में गला घोटने का कार्य किया ।
निष्कर्ष
बौद्ध व जैन परंपराओं की भी अपनी कुछ सीमाएं अथवा कमजोरियां थीं और कुछ समय के साथ इसमें जीर्णता व अपसंस्कृति भी आ गयी थी । जैन धर्म का प्रसार मूलत: भारत तक ही सीमित रह गया तथा बौद्ध धर्म अपने गृह प्रदेश मगध व भारत से ही सीमित रह गया तथा बौद्ध धर्म अपने गृह प्रवेश मगध व भारत से लगभग पूर्णतः समाप्त हो गया तथापि शताब्दियों तक जैन व बौद्ध मत भारत के लोगों को प्रभावित तथा मार्गदर्शक की भूमिका निभाता रहा । इनके मतों को भारत के विभिन्न राजाओं ने भी अपना समर्थन दिया। उत्तर भारत के जैन समर्थक राजाओं में मगध के नंदवंश, हर्यकवंश के बिम्बिसार,