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भारतीय संस्कृति पर बौद्ध व जैन-परम्परा का प्रभाव
127 आत्मा कर्मफल के बंधन में बंध जाती है, जिससे जीव को पुनः -- पुनः जन्म लेना पड़ता है तथा दुःख भोगता है, इसके लिए आवश्यक है कि आत्मा की शुद्धि तथा कर्मफल के बंधन से मुक्ति के लिए वैदिक यज्ञवाद, उपनिषदीय ज्ञानवाद में न पड़कर सम्यक जीवन की राह का अनुसरण करे। क्योंकि यज्ञवाद की संस्कृति एक तो पुरोहित प्रधान संस्कृति है तथा दूसरे यज्ञीय कर्मों में पशुवध होता है जो हिंसा होने के कारण पाप उत्पन्न करता है। मुक्ति के लिए ज्ञान पर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति वास्तविक ज्ञान के केवल एक अंश को देखता है। अतः आत्मा की शुद्धि के लिए सम्यक् जीवन की आवश्यकता है।
इसके अतिरिक्त जैन धर्म में आत्मा की शुद्धि तथा शरीर से उसकी मुक्ति के लिए उपवास के द्वारा काया-क्लेश का भी विधान किया गया।
महात्मा बुद्ध ने वेद यज्ञ तथा ईश्वर के अस्तित्व की तरह आत्मा का भी कोई स्थान नहीं माना है। उनके अनुसार जन्म-मरण का कारण आत्मा नहीं है, बल्कि किसी जीव का कर्मफल है जो उसे बार-बार जीवन-मरण के चक्र में डालता है। कर्मफल अगले जन्म का कारण कैसे बनता है, इसके उत्तर में मिलिन्द प्रश्न में कहा गया है, जिस प्रकार पानी में लहर उठकर दूसरे को जन्म देकर स्वयं समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार कर्मफल चेतना के रूप में पुनर्जन्म का कारण होता है।
महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्यों के ज्ञान तथा अनुशीलन तथा अष्टांगिक मार्ग के अनुसरण से निर्वाण संभव बताया है। बौद्ध व जैन धर्म की सीमाएं
बौद्ध व जैन धर्म दोनों ने सभी जाति, वर्गों के स्त्री पुरुष के लिए अपना द्वार खोला परंतु स्पष्ट व मुखर तौर पर जाति व वर्ण व्यवस्था की आलोचना नहीं की। दोनों मतों में जाति निर्धारण को जन्म के बदले कर्म पर आधारित करने का प्रयास ब्राह्मणों से कई जगह पर क्षत्रियों को श्रेष्ठ बताना जाति प्रथा को पुष्ट करता है। दूसरे बौद्ध व जैन धर्म भी उत्पीड़त वर्गों को समाज में सम्मान दिलाने में सक्षम न रहा। उच्च वर्ग के लोग ही मुलतः इन मतों से ज्यादा लाभ उठाया।