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श्रमण-संस्कृति में परिवर्तन हो रहे थे तथा इसके समर्थन के लिए धार्मिक स्वीकृति की आवश्यकता थी। विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे परिवर्तन तथा वैदिक धर्म की रूढ़ियां
लौह तकनीक के विकास ने खेती में क्रांतिकारी परिणाम लाये। लोहे के फाल से गहरी जुताई के कारण अधिक उपज होना संभव हुआ तथा कृषि क्षेत्र में भी विकास हुआ। इसके परिणामस्वरूप कृषि प्रणाली में अब कृषि कार्य के लिए अधिकाधिक पशुओं की जरूरत महसूस हो रही थी। अतः पशुवध अब वैदिक यज्ञ में हो अथवा इस क्षेत्र में जनजातीय लोगों द्वारा, सामाजिक प्रगति के लिए बाधक बन गया।
कृषि विकास के अतिरिक्त लौह उपकरण के बढ़ते प्रयोग से अनेक शिल्पों तथा उद्योगों में भी प्रगति हुई। फलस्वरूप उत्तर पूर्व भारत में नगरीकरण
की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। साथ ही, इसका सकारात्मक प्रभाव व्यापार के द्रुत विकास पर भी पड़ा। इन सबके कारण वैदिक सामाजिक व्यवस्था के कबायली जीवन की परंपरागत मान्यता टूटने लगी। व्यवसायी तथा व्यापारी अत्यधिक धनी होने लगे। निजी संपत्ति की धारणा दृढतर होने लगी। उसे सामाजिक व धार्मिक मान्यता की आवश्यकता थी।
लौह तकनीक के विकास ने क्षत्रि वर्ग को अधिक शक्तिशाली बनाया तथा बड़े-बड़े साम्राज्य की स्थापना का मार्ग पथ-प्रशस्त किया। क्षत्रिय वर्ग अत्यधिक धन संपन्न होने लगे। परिणाम - स्वरूप समाज में अपनी अग्रणी भूमिका व उनकी अपेक्षा स्वभावतः बढ़ने लगी।
उत्तर वैदिक काल में कृषिगत विकास, शिल्प एवं उद्योग में वृद्धि तथा व्यापारिक प्रगति हो रही थी। साथ ही इस काल में वैदिक यज्ञ का प्रभाव भी बहुत बढ़ गया था एवं विभिन्न साम्राज्यों की स्थापना के कारण निरंतर युद्ध चल रहे थे, परिणामस्वरूप सर्वाधिक क्षति कृषि, शिल्प एवं उद्योग तथा व्यापार से संबंधित लोगों को हो रही थी, क्योंकि वैदिक यज्ञ में जहाँ धन व पशु की हानि हो रही थी वहीं युद्ध के अधिकांश बोझ इन्हीं लोगों को उठाना पड़ता था। इसके अतिरिक्त युद्ध के कारण वे विस्थापित भी हो जाते थे। दूसरे, वैदिक व्यवस्था में व्यापार से संबंधित कई बाधाएं भी थीं।