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बुद्धायन में अभिव्यक्त बौद्ध धर्म एवं उसकी प्रासंगिकता लगभग एक दर्जन महाकाव्यों में से दो -- दो महाकाव्य अपने महानायक महात्मा बुद्ध के ही जीवन और दर्शन पर रचे गए हैं। इनमें प्रथम दण्डिस्वामी विमलानन्द सरस्वती द्वारा रचित 'बउधायन' है। जिसका प्रकाशन 1983 ई० में भोजपुरी अकादमी पटना से हुआ। बत्तीस सर्गों में रचित 'बउधायन' मुक्त छंद में लिखा गया है तथा इसमें बुद्ध, बौद्ध धर्म और उसके देश विदेश में प्रचार प्रसार तक का वर्णन है।
__ जबकि दूसरा अर्जुन सिंह 'अशांत' रचित 'बुद्धायन' है। दोहा- चौपाई शैली में रचित इस महाकाव्य को दस पर्यों में विभाजित किया गया है। 'बुद्धायन' में भगवान बुद्ध के जन्म के कारण से शुरू होकर निर्वाण तक की कथा के साथ साथ बुद्ध के जीवन चरित्र एवं जीवन दर्शन का वर्णन है। इसमें दोहा, चौपाई के अलावे सौरठा और सवैया का प्रयोग भी कहीं कहीं सर्ग के आरम्भ में काव्य में रोचकता लाने के लिए किया गया है। बुद्धायन की भाषा तत्सम् शब्दावली से भरी पड़ी है। सजातीय शब्द समूह और सामाजिक पदों के साथ साथ संस्कृत शास्त्रीय ग्रंथों के अध्यात्मिक शब्दों की भरमार है। कहीं कहीं तत्सम शब्दों को भोजपुरी में उच्चारण के अनुसार दोहा-चौपाई के अनुकूल तुक बैठाने के लिए स्थानीय रूप दे दिया गया है।
महाकाव्य 'बुद्धायन' का दस पर्यों में विभाजन कथा-वस्तु तथा उसके क्रम को ध्यान में रख कर दिया गया जो इस प्रकार है -
1. वंदना पर्व, 2. जन्म पर्व, 3. बाल पर्व, 4. बसंत पर्व, 5. संन्यास पर्व, 6. संवाद पर्व, 7. योग पर्व, 8. ज्ञान पर्व, 9. निर्वाण पर्व, 10. कल्याण पर्व।
कविवर 'अशांत' जी ने बंदना पर्व में पूरे महाकाव्य का सार विषय-वस्तु के निर्देश के साथ-साथ बुद्धायन लिखने का अपना उद्देश्य एवं संदेश बताया है। कवि कहता है आज पूरा देश हिंसा, अत्याचार, शोषण जातिवाद और वर्ग संघर्ष से जूझ रहा है। अर्थ शक्ति और सत्ता सभी पर दबंगों का अधिकार है जो कमजोर तबके का शोषण कर रहे हैं। दलितों एवं निर्बलों को न तो कोई अधिकार प्राप्त है न ही किसी प्रकार का उनके साथ न्याय हो रहा है। अर्थ - शक्ति सत्ता संसारा। जापर सबल करहिं अधिकारा।
सो कमजोर जीव-समुदायी। चूसहिं रक्त सदा बरियाई।।