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श्रमण-संस्कृति संस्थाओं, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म-दर्शन, लिपि भाषा तथा कलाओं का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करते हैं। भारतीय संस्कृति की भी इसी प्रकार रचना हुई है।'
किसी भी देश की संस्कृति उसके विभिन्न युगों के आचारों एवं विचारों की परम्परा से उत्पन्न एक भूषण युक्त परिष्कृत स्थिति को द्योतक होती है। विश्व में प्राचीन एवं अर्वाचीन अनेक संस्कृतियां हैं। किन्तु उन सब में भारतीय संस्कृति का स्थान अनुपम एवं सर्वोच्च है। विद्वानों के एक वर्ग का मानना है कि भारतीय संस्कृति मूलतः हिन्दू संस्कृति है। प्राचीन काल से लेकर आज तक अनेक बाहरी जातियां शक, हूण, सीथियन आदि इस देश में आयी और सभी को इस ग्रहणशील संस्कृति ने उदरस्थ कर लिया। सभी ने अपने प्रभावों से इसके ऊपर छाप छोड़ी पर इस संस्कृति का मूल स्वर हिन्दू ही रहा। इसके बाद भारत में मुसलमान और ईसाई जातियां आयीं। इन जातियों की अपनी अलग संस्कृति और सभ्यता थी, ये भारत वर्ष में शताब्दियों से एक शासके के रूप में रहीं और भारत के विशाल हिन्दू समाज में विलीन न हो सकी। इन्होंने हिन्दुओं से अपने आचार-विचार, धर्म दर्शन, रीति रिवाज, खान-पान, और वेशभूषा में अपना पृथकत्व बनाये रखा। फिर भी इन जातियों ने हिन्दू संस्कृति को प्रभावित किया। प्रतिदान में हिन्दू संस्कृति ने इन संस्कृतियों पर अपना संस्कार डाला पर इनकी संस्कृति भारत में परम्परा से चली आने वाली प्रवाहमान हिन्दू संस्कृति से भिन्न रही।
भारतीय संस्कृति में मूलतः हिन्दू संस्कृति देखना और घोषित करना वस्तुतः संकीर्ण दृष्टि का परिचायक हैं, क्योंकि आज हिन्दू शब्द अपनी अर्थ व्यापकता खो चुका है। यदि हिन्दू और हिन्दी शब्द के आदि सृष्टाओं के द्वारा मान्य अर्थ को आज भी ग्रहण किया जाता तो, हिन्दू शब्द का अर्थ निकलता - भारतीय। आज हिन्दू शब्द भारतीय पर्याय न रहकर एक धार्मिक जाति विशेष के लिए प्रयुक्त होता है। यह प्रयुक्ति आज की नहीं है, तब की है जब इस्लाम इस देश में आया और उसने अपने पाँव पसारने के लिए काफिर की इस्लामी परिभाषा ग्रहण करते हुए काफिरों को समस्त गैर इस्लामी भारतीयों को हिन्दू मानकर नेस्तनाबूद करने का बीड़ा उठाया। यह काम घृणा के साथ