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________________ स्थूलभद्र - कथा और तत्सम्बन्धी राजस्थानी रचनाएं झूठी प्रशंसा करना आरम्भ किया जिससे उसे प्रतिदिन आठ सौ दीनारें मिलने लगीं । पर इस प्रकार दान देने से राजकोष के शीघ्र समाप्त होने की सम्भावना थी । अतः कडाल ने राजा को कहा कि वररुचि लौकिक श्लोक पड़ता है, जिन्हे उसकी लड़कियां भी जानती हैं । 65 इस सत्य की जांच के लिए राज सभा बुलाई गई। मंत्री की सातों कन्याएं परदे के पीछे बैठी हुई थीं । वररुचि ने श्लोक आरम्भ किया और कन्याओं ने उन्हें ज्यों का त्यों राज-सभा में सुना दिया। अपने काव्य को पुराना प्रमाणित देखकर वररुचि तड़पता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। तिरस्कार के कारण अब वररुचि का अभिमान बढ़ गया था | अतः उसने अपने महत्व को जताने के लिये नयी युक्ति सोची। वह रात को गंगा में दीनारें छिपाकर दूसरे दिन प्रातः काल आकर गंगा की स्तुति करता और लातें मारकर गंगा में से दीनारें निकाल लेता । जब इस घटना को राजा ने सुना तो उसने शकडाल को भी इसकी सूचना दी। शकडाल ने कहा यदि मेरे सामने गंगा उसे कुछ तो जानूं । अगले दिन इस घटना की परीक्षा के लिये शकडाल ने गंगा तट पर एक आदमी को छिपाकर बिठा दिया। उस आदमी ने वररुचि द्वारा छिपाई गई पोटली लाकर शकडाल को दे दी । वररुचि प्रतिदिन की भांति गंगा मैया की स्तुति कर पोटली ढूंढने लगा । पर पोटली वहां नहीं मिली। इसी समय शकडाल ने राजा को वह पोटली दिखाई । पोटली देखकर वररुचि लज्जित होकर वहां से चला गया । | तिरस्कार की अग्नि वररुचि में निरन्तर बढ़ती रही। उसने शकडाल की दासी से मित्रता बढ़ाकर श्रीयक के विवाह के समय एक षड़यंत्र रचा। उसने राजा से कहा कि शकडाल उन्हें मारकर अपने पुत्र को राजा बनाना चाहता है । इस घटना को सुनकर राजा ने भी मंत्री के समस्त सम्बन्धियों का वध कर देने की योजना बनाई। यहां तक कि एक दिन शकडाल जब राजा के पैर छूने आया तो राजा ने क्रोध से अपना मुंह फेर लिया, और उसके प्रति अत्यन्त उपेक्षा दिखलाई । इस वातावरण ने शकडाल को बड़ा दुखी किया। उसने अपने पुत्र श्रीयक को सारे हाल सुनाकर उसके वध का निवेदन किया । परन्तु श्रीयक ने उसे अस्वीकार कर दिया। अन्त में बहुत कहने पर शकडाल द्वारा तालपुर विष खाकर राजा के समक्ष उसके वध की बात पर वह (श्रीयक) राजी हो गया । श्रीयक के हाथों शकडाल का वध देखकर राजा को अत्यन्त आश्चर्य एवं शोक हुआ । किन्तु उसकी स्वामिभक्ति को जानकर वह प्रसन्न भी हुआ । उसने उसे मंत्री - पद
SR No.022847
Book TitleRajasthani Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswarup Mathur
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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