________________
50
ऐसा ही एक वात्सल्य रस का चित्र प्रस्तुत है, जहां वर्षों बाद पुत्र के लौटने पर वात्सल्य भाव से परिपूर्ण राजा की मानसिक दशा का चित्रण
है
उत्तम नृप मिलीयो जई, बाप भी धरि नेह । मन विवस्य तन उल्लस्यो, रोमांचित धयी देह ॥1 ॥
मकरध्वज भूपाल पणि, सुत उभरि करि मोह | अंगई आलिंगन दीयौ सखदीवधारी सोह || 2 || 1
राजस्थानी जैन साहित्य
सोवन मई-सुंदर आवास ॥317
हुआ
इन कवियों ने अपनी कथावस्तु को हृदयंगम कराने के लिए सादृश्यमूलक उपमा, रुपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग किया है । यह प्रयोग सहज, स्वाभाविक एवं भावोत्कर्षक हैं । इन अर्थालंकारों के अतिरिक्त इनमें राजस्थानी के वयणसगाई अलंकार का भी कई जगह सफल निर्वाह देखने को मिलता है, यथा
यह दीठो तेह सरुप ॥68 ||
- कुशललाभ कृत- तेजसार रास चौपाई
– वही, भीमसेन हंसराज चौपई
इस सुंदर अलंकार योजना के साथ ही विविधि छन्दों से भी ये प्रेमाख्यान रुपायित हैं । जैन प्रेमाख्यानक रचनाओं में प्रयुक्त प्रमुख छंद है— दूहा, चउपई, गाहा, छप्पय, कवित्त, बेअक्खरी, त्रोटक, वस्तु, काव्य, छंद, रोमकी, नाराच, त्रिभंगी, चावकी, पद्धड़ी, अड़मल इत्यादि । इन छन्दों के अतिरिक्त इन कवियों ने लोक प्रचलित ढालों को भी ग्रहण कर इन रचनाओं को संगीतात्मकता प्रदान की है । संगीत तत्व को बनाये रखने की दृष्टि से अनेक स्थानों पर इन कवियों द्वारा प्रयुक्त उपर्युक्त छन्द काव्यशास्त्रीय लक्षणों से मेल नहीं खाते । तुक के आग्रह से अनेक स्थलों पर हकार, इकार, और अकार रुप कर दिये गये हैं ।
राजस्थानी जैन प्रेमाख्यानों की भाषा मध्यकाल में प्रचलित लोकभाषा राजस्थानी है, जिसे विद्वानों ने “ जूनी गुजराती” अथवा प्राचीन राजस्थानी कहा है । यह राजस्थानी व्याकरण सम्मत, गुजराती शब्दों और विभक्तियों की बहुलता लिये हुए है। इसका
1. विनयचंद्र कुसुमांजलि में संकलित उत्तमकुमार चरित्र चौपई, पृ. 201, (प्रकाशक सार्दूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर)