SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजस्थानी की जैन-प्रेमाख्यानक रचनाएं 49 कन्या सुंदरी मदालसा के प्रेम में पड़ जाता है। तीसरी रचना में दक्षिण दिशा में जाने पर जिनपालित को राक्षस से युद्ध करना पड़ता है। राजस्थानी जैन प्रेमाख्यानों में दो भाइयों का कथातंत् काफी उभरा है। इस रुढ़ि का मूल रुप इन्द्र-उपेन्द्र, अश्विनी बंधु की वैदिक कहानियों एवं रामलक्ष्मण, कृष्ण-बलराम की महाकाव्य कालीन कहानियों में सुरक्षित हैं । जिनपालित जिनरक्षित संधि गाथा, पार्श्वनाथ दसभव स्तवन (कुशललाभ), चित्रसेन पद्मावती रतनसार चौपई (रामविजय) हंसराज-बच्छराज चौपाई (विजयभद्र) आदि रचनाओं में इस रुढ़ि का सुन्दर चित्रण हुआ है। दोहद-सम्बन्धी कथानकरुढ़ि का प्रयोग भी जैन प्रेमाख्यानक रचनाओं में बहुतायत से मिलता है। ब्लूमफील्ड ने इसके छह रुप बताये हैं। कुशललाभ की भीमसेन हंसराज चौपई में मदनमंजरी सौत की आशंका से अपने पति से अमरफल प्राप्त करने का प्रस्ताव करती है, जिसे कनकवती की माता व्यंतरी हंसिनी द्वारा प्राप्त कर उसकी अभिलाषा का शमन करती है। समयसंदर कृत "मृगावती रास” की मृगावती गर्भावस्था में रक्त से भरी बावड़ी में स्नान करने की अभिलाषा व्यक्त करती है। राजस्थानी जैन प्रेमाख्यानक रचनाएं काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है । शृंगार रस से आरंभ हुई शान्त रस में परिणत इन रचनाओं में अद्भुत, करुण, भयानक, वीभत्स, वीर रसों के यथा-प्रसंग सटीक वर्णन मिलते हैं। प्रायः सभी प्रेमाख्यानों में नायिका की प्राप्ति के बाद लौटते वक्त राज्य का किसी न किसी प्रतिनायक (मानव अथवा अलौकिक शक्ति) से युद्ध हुआ है। अहिंसावादी होते हुए भी जीवन के सत्य से ये जैन कवि विमुख नहीं हुए। मोहनविजय कृत मानतंग मानवती रास में आमने-सामने होकर भिड़ रही सेनाओं का शब्द चित्र इस संदर्भ में द्रष्टव्य है सेन बेह उलटी आमुही-सामुही, गणी अणै राग सिंधु बजाया। रण चढ़ी अंबरे अश्व पड़ताल थी तरण ना किरण नै नैण छाया। बड़ा योध जूटा धरा मीहि छूटै पटा, गटपटा लाल शेर लपेटा। अटपटा झटपटा झपट करता झटा, खरपटा तेहवा मेट मेटा। धम धमे धिगति हांकायर कमकमै चमचमै छाव वही शुक्रधारा ।' 1. जैन श्वेताम्बर मंदिर, अजमेर की प्रति ।
SR No.022847
Book TitleRajasthani Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswarup Mathur
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy