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________________ राजस्थानी जैन-काव्य में संगीत-तत्त्व जैन धर्म भारत के प्रचारात्मक धर्मों में से एक है । इसलिये इस धर्म का साहित्य भी प्रचारात्मक प्रवृत्तियों को लिए हुए हैं । जैनियों का यह प्रचार व्यष्टिपरक न होकर समष्टिपरक है। जैनकवियों ने अपने धर्म को जन-जन तक पहुँचाने के लिये उसकी सहजता का सर्वाधिक ध्यान रखा । इसीलिये जन-साहित्य गीतात्मक प्रवृत्ति को लिए हुए मिलता है। जैन-कवियों ने अपने धार्मिक सिद्धान्तों को जन रुचि के अनुकूल बनाने के लिए तत्कालीन प्रचलित शास्त्रीय एवं लौकिक बन्धों को ग्रहण किया। साथ ही जिस प्रान्त में जो प्राकृत या अपभ्रंश का स्वरूप प्रचलित था, उन्हीं भाषाओं में इन कवियों ने इस साहित्य का सृजन किया। जैन-कवियों ने जिन लौकिक बंधों एवं शास्त्रीय रागों का उपयोग किया, वे इस प्रकार हैं(क) शास्त्रीय रागें-श्री (धवल), देशाख, छाया, राजवलभ, धन्याश्री, सूहव, आसावरी, सामेरी, मल्हार, षंभायती, सोरठी, गौड़ी, धन्याश्री, गोडा बालूछानी, जयंतसिरी, सारंग, धन्यासिरी-मारुणी, आस्यासिंधूड़ो, गूरी, धवल-धन्याश्री मेवाड़उ, रामगिरी, तोड़ी, काकी, वैराड़ी। (ख) लौकिक-बंध-(अ) छंद-घत, धत्ता, छप्पय, कवित्त, वस्तुक, उल्लाला, सोरठा आदि। (आ) ढालें-उलालानी, इक्बीस ढालियानी, गौड़ी, सुणि-सुणि जंबूनी, जतनी, __भावनारी, चंदलियानी, पाहली, बिणजारानी, बड़खानी, पुरन्दरनी चौपई नी, नायकारी, पोपट पंखियानी, वदली री, रसोयानी, देशी हमीरानी, रसोयानी देशी, साहिलानी, फागनी। जैन कवियों की गीतात्मक रचनाओं में उक्त रागों के नामोल्लेख से यह सिद्ध
SR No.022847
Book TitleRajasthani Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswarup Mathur
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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