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राजस्थानी जैन साहित्य
गंगा-जमुना, गोमती, पुष्कर, क्षिप्रा आदि तीर्थों के प्रति जन समाज की आस्था थी। देवी, शिव, पार्वती का व्रत करके इष्ट फल की प्राप्ति की जाती थी। शत्रुजय यात्रा, बाहुबलि यात्रा, गिरनार यात्रा, समेत शिखर-यात्रा करना जैन धर्मावलम्बी श्रेष्ठ मानते थे। इनकी यात्रा के लिये वे संघों में जाते थे।
इस प्रकार निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि वि.सं. 1600 से 1900 तक रचित जैन साहित्य तत्कालीन सामाजिक इतिहास को जानने के महत्वपूर्ण आधार स्त्रोत हैं । समाज की प्रत्येक गति-विधि का हाल इन रचनाओं में किसी न किसी प्रसंग में मिलता है। अधिकांश वर्णन उच्च मध्य वर्ग से सम्बन्धित ही है। इससे यह भी निष्कर्ष दिया जा सकता है कि तब गरीबी नहीं के बराबर ही रही होगी । यात्रा, भवनादि के जो चित्रण हुए हैं—इनकी चमक-दमक एवं व्यय से यह एक सम्पन्न समाज ही सिद्ध होता है।