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राजस्थानी जैन साहित्य
में उपाध्याय अभयधर्म के शिष्य वाचक कुशललाभ का सदैव महत्वपूर्ण स्थान बना रहेगा। कुशललाभ के साहित्य की मार्मिकता के विषय में वेलि क्रिसण रुक्मिणी के रचयिता पृथ्वीराज राठौड़ को सम्राट अकबर द्वारा कही गयी ये पंक्ति बड़ी सटीक है कि, तुम्हारी वेलि को तो ढोला का करहला (ऊंट) चर गया ।'
कुशललाभ के साहित्य की इस मार्मिकता का राज़ है लौकिक अनुभूति को अपनी विषय सामग्री बनाना। इसी अहसास के कारण कुशललाभ की रचनाओं में अन्य जैन कवियों की तुलना में मध्यकालीन आचार-विचार, रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार, वेशभूषा, लोकाचार एवं विश्वासों का सुन्दर चित्रण हुआ है। ये सभी वर्णन सामन्ती एवं जैन संस्कृति से संबंधित है, क्योंकि कुशललाभ का साहित्य विशेष रूप से इन दो वर्गों से ही संबंधित है।
4.. .सं.स्वामी नरोत्तमदास - ढोला मारू स दूहा,प्राक्कथन (पाद टिप्पणी), पृ.1. वि.सं.2011