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वाचक कुशललाभ का जैन साहित्य को योगदान
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जैसलमेर का निवासी था । उसके साहित्य में यों तो जैन रचयिताओं की सभी भाषाओं का पुट मिलता है, किन्तु मुख्य रूप से कुशललाभ की रचनाओं को भाषा की दृष्टि से दो भागों में बांटा जा सकता है- (1) शुद्ध डिंगल या राजस्थानी की रचनाएं जैसे—महामाई दुर्गासातसी, जगदम्बा छन्द अथवा भवानी छंद तथा पिंगलशिरोमणि
और,
(2) जूनी गुजराती अथवा प्राचीन राजस्थानी की रचनाएं । इस वर्ग में उक्त तीन
रचनाओं के अतिरिक्त शेष रचनाओं को समाहित किया जा सकता है । इनमें यथा-प्रसंग प्राकृत की गाथाओं, संस्कृत के श्लोक, छंद आदि शास्त्रीय बंधों तथा लोक प्रचलित ढालों का भी प्रयोग किया गया है । इस प्रकार जैन साहित्य में कुशललाभ की विशिष्टता है विषयानुकूल भाषा का प्रयोग। जब वह रौद्र रस से समन्वित भावना को प्रकट करता है तो लिखता है
"कालिका दूज ब्रह्म मंड कीधा, रोहिर भषण जोगवीरिधा।
गड़मड़इ सिंधु पूरंति ग्राह, अरिही देव अरि दलण आह ।।
शृंगार के क्षेत्र में यही शब्दावली इतनी अधिक मधुर बन जाती है कि उसे पढ़ने मात्र से रोमांच होने लगता है
आव्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे, जोवइ जोवइ प्रीयड़ा वाट सकोमल कामिनी रे । चातक मधुरइ सादिकि प्रीउ प्रीउ उचरइ रे वरसइ घण बरसाल सजल सरवर झरइ रे ।।
(पूज्यवाहण गीत, गाथा 61) जैन चरित काव्यों में प्रयुक्त भाषा ने कवि कुशललाभ को लोकप्रियता दी है। "पिंगलशिरोमणि" कवि की एक शास्त्रीय रचना है, अतः उसमें कवि के पाण्डित्य का पूर्ण परचिय मिलेगा।
इस प्रकार कुशललाभ एक सांस्कृतिक प्रदेश राजस्थान की सामासिक संस्कृति का कवि था, जिसने अपनी बहुज्ञता द्वारा साहित्य को संकुचित मर्यादाओं तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे युगानुरूप जनरूचि के अनुसार जैनेतर विषयों को भी अपनी रचनाओं का आधार बनाया तथा इन विषयों से जैन धर्म और संस्कृति को अन्य जैन रचनाकारों की तुलना में व्यापक फलक प्रदान किया। धार्मिकता की अपेक्षा साहित्यिक मार्मिकता एवं शास्त्रीयता से उसे संवारा । इन्हीं सब कारणों से जैन साहित्य